विकास के सिद्धान्त, Vikas Ke Siddhant (PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)

विकास के सिद्धान्त, Vikas Ke Siddhant (PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)

विकास के सिद्धान्त, vikas ke siddhant (PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)

मनुष्य का विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसकी शुरुआत गर्भावस्था से ही हो जाती है और यह जीवन भर चलती रहती है। जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे उसके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक पक्षों में भी निरंतर परिवर्तन आते हैं। ये परिवर्तन अवस्था परिवर्तन के अनुरूप होते हैं और कुछ निश्चित मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होते हैं।

विकास की यह प्रक्रिया न तो रुकती है और न ही एक समान गति से चलती है, बल्कि यह विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न गति और रूपों में प्रकट होती है। मनोविज्ञान में मनुष्य के विकास को समझने के लिए कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि व्यक्तित्व, व्यवहार, सोचने की क्षमता और सामाजिक समझ किस प्रकार विकसित होती है। व्यक्ति के विकास के अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त हैं। मुख्य सिद्धान्तों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।

1. निरन्तरता का सिद्धांत (Principle of Continuity)

मानव विकास एक सतत और क्रमिक प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है। यह किसी भी अवस्था में अचानक या आकस्मिक रूप से नहीं होता, बल्कि धीरे-धीरे अनुभवों और परिपक्वता के साथ आगे बढ़ता है। स्किनर के अनुसार, विकास की इस निरन्तरता का अर्थ है कि व्यक्ति में कोई भी परिवर्तन अचानक नहीं आता, बल्कि वह समय के साथ क्रमिक रूप से विकसित होता है। उदाहरण के तौर पर, मनुष्य की शारीरिक वृद्धि आयु के साथ धीरे-धीरे होती है—यह एक झटके में नहीं होती—और जब व्यक्ति परिपक्वता प्राप्त कर लेता है, तो यह वृद्धि रुक जाती है। वहीं मनोशारीरिक क्रिया-अनुक्रियाओं में निरंतर परिवर्तन होता रहता है, जो अनुभवों के आधार पर नई प्रतिक्रियाओं के रूप में उभरते हैं। इन क्रमिक, प्रगतिशील और ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों को ही विकास कहा जाता है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व और क्षमताओं को समय के साथ परिपक्व बनाते हैं।

2. व्यक्तिगतता का सिद्धांत (Principle of Individuality)

यद्यपि मानव विकास का एक सामान्य ढांचा या प्रतिमान होता है, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति का विकास एक-दूसरे से भिन्न होता है। यह भिन्नता मुख्यतः वंशानुक्रम (heredity) और वातावरण (environment) की विविधता के कारण होती है। जैसे कोई दो व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से पूरी तरह एक जैसे नहीं हो सकते, उसी प्रकार उनके विकास की प्रक्रिया भी समान नहीं हो सकती। हर व्यक्ति की रुचियाँ, क्षमताएँ, अनुभव और प्रतिक्रिया देने की शैली अलग होती है, जो उसके विकास को विशिष्ट बनाती है। इसके अलावा, बालकों और बालिकाओं के विकास में भी अंतर देखा जाता है। उदाहरण के लिए, बालिकाओं का शारीरिक विकास अक्सर बालकों की तुलना में जल्दी और अलग रूप में होता है। यह सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि शिक्षा, पालन-पोषण और सामाजिक व्यवहार में हर व्यक्ति की व्यक्तिगत आवश्यकताओं और गति को ध्यान में रखना आवश्यक है।

3. परिमार्जिता का सिद्धांत (Principle of Modifiability)

परिमार्जिता का सिद्धांत यह दर्शाता है कि बालक के विकास की दिशा और गति को बदला या समायोजित किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि विकास एक स्थिर प्रक्रिया नहीं, बल्कि ऐसी प्रक्रिया है जिसे उचित शिक्षा, प्रशिक्षण और सामाजिक वातावरण के माध्यम से वांछित दिशा में मोड़ा जा सकता है। इस सिद्धांत का शैक्षिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व है, क्योंकि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक के संतुलित एवं सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करना है। यदि किसी बालक का व्यवहार या व्यक्तित्व अवांछनीय दिशा में जा रहा हो, तो शिक्षक, अभिभावक और सामाजिक संस्थाएँ उसे सही मार्ग पर लाने के लिए प्रभावी हस्तक्षेप कर सकते हैं। इस प्रकार, परिमार्जन योग्य विकास हमें यह अवसर देता है कि हम बच्चों के व्यवहार और व्यक्तित्व को सकारात्मक दिशा में ढालकर उन्हें समाज का जिम्मेदार और सक्षम नागरिक बना सकें।

4. विकास क्रम का सिद्धांत (Principle of Development Sequence)

विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक होती है, लेकिन यह प्रक्रिया अनियंत्रित या बेतरतीब नहीं होती, बल्कि इसमें एक निश्चित और क्रमबद्ध अनुक्रम पाया जाता है। इसे ही विकास क्रम का सिद्धांत कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, किसी भी बच्चे का शारीरिक, मानसिक या भाषायी विकास एक तय क्रम में होता है जिसे बदला नहीं जा सकता, केवल उसकी गति में अंतर हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, एक बालक भाषा सीखने की प्रक्रिया में पहले क्रंदन (रोना) करता है, फिर निरर्थक ध्वनियों का उच्चारण करता है और अंततः सार्थक शब्दों और वाक्यों तक पहुँचता है। इसी प्रकार, गामक विकास (motor development) में बच्चा पहले हाथ-पैर हिलाना शुरू करता है, फिर पलटना सीखता है, उसके बाद बैठना, खड़ा होना और अंत में चलना सीखता है। यह सिद्धांत इस बात को रेखांकित करता है कि विकास के प्रत्येक चरण में एक प्राकृतिक अनुक्रम होता है, जिसे समझकर ही प्रभावी शिक्षा और पालन-पोषण किया जा सकता है।

5. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of General to Specific Responses)

यह सिद्धांत दर्शाता है कि मनुष्य का विकास सामान्य और अनियंत्रित प्रतिक्रियाओं से शुरू होकर धीरे-धीरे विशिष्ट और उद्देश्यपूर्ण प्रतिक्रियाओं की ओर बढ़ता है। मनोवैज्ञानिक हरलॉक के अनुसार, विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में बच्चे की प्रतिक्रियाएँ व्यापक और असंगठित होती हैं, लेकिन जैसे-जैसे अनुभव और समझ बढ़ती है, वे प्रतिक्रियाएँ अधिक विशिष्ट और संगठित हो जाती हैं। उदाहरण के रूप में, एक छोटा बच्चा शुरुआत में हर वस्तु को मुँह में डालता है — यह उसकी सामान्य प्रतिक्रिया होती है। लेकिन अनुभव के साथ वह समझने लगता है कि कौन-सी चीजें खाने योग्य हैं और कौन-सी नहीं, और अंततः वह एक निश्चित समय पर, निश्चित ढंग से भोजन करना सीख जाता है। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि विकास क्रमिक होता है और अनुभवों व वातावरण की सहायता से विशिष्टता की दिशा में अग्रसर होता है, जिससे व्यक्ति की व्यवहार क्षमता में परिपक्वता आती है।

6. केन्द्र से निकट-दूर का सिद्धांत (Proximo-Distal Principle)

यह सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि शारीरिक विकास की प्रक्रिया शरीर के केन्द्र (मुख्य रूप से स्नायुमंडल) से शुरू होकर धीरे-धीरे बाहरी और दूरवर्ती अंगों की ओर बढ़ती है। अर्थात्, सबसे पहले स्नायुमंडल (nervous system) का विकास होता है, जिसके पश्चात शरीर के निकटवर्ती भाग जैसे छाती, पेट और हृदय विकसित होते हैं। इसके बाद यह विकास क्रम धीरे-धीरे हाथ, पैर, हथेलियों और अंततः उंगलियों जैसे सूक्ष्म भागों तक पहुँचता है। इस सिद्धांत के अनुसार, बच्चा पहले अपने शरीर के मध्य भाग पर नियंत्रण पाता है और बाद में बाहरी अंगों पर। उदाहरण के लिए, एक शिशु पहले बैठना सीखता है (केंद्र का नियंत्रण), फिर रेंगना, और अंत में छोटे-छोटे कार्य जैसे वस्तुओं को उंगलियों से पकड़ना सीखता है। यह विकास की स्वाभाविक दिशा को दर्शाता है, जो यह संकेत देती है कि शारीरिक और गामक नियंत्रण केंद्र से दूर की ओर क्रमबद्ध रूप से विकसित होता है।

7. मस्तकाधोमुखी सिद्धांत (Cephalocaudal Principle)

मस्तकाधोमुखी सिद्धांत यह दर्शाता है कि मानव विकास की दिशा सिर से पैरों की ओर होती है। अर्थात्, शारीरिक और गामक नियंत्रण पहले सिर, फिर गर्दन, धड़ और अंततः पैरों में विकसित होता है। भ्रूण अवस्था में सबसे पहले सिर का विकास होता है और शिशु जन्म के बाद सबसे पहले सिर को नियंत्रित करना सीखता है। इसके बाद वह गर्दन और पीठ को संभालता है, फिर बैठने की स्थिति में आता है और धीरे-धीरे चलना, खड़ा होना और दौड़ना सीखता है। इस सिद्धांत का शैक्षिक और विकासात्मक दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है, क्योंकि यह बताता है कि बालकों के विकास को समझने और उसकी उपयुक्त सहायता करने के लिए उनकी उम्र के अनुसार ऊपर से नीचे की दिशा में हो रहे विकास को पहचानना आवश्यक है।

8. एकीकरण का सिद्धांत (Principle of Integration)

एकीकरण का सिद्धांत यह बताता है कि बालक का विकास संगठित और समन्वित ढंग से होता है, जिसमें वह अपने शरीर के विभिन्न भागों को पहले अलग-अलग, फिर एक साथ मिलाकर नियंत्रित करना सीखता है। प्रारंभ में बच्चा केवल पूरे अंग को चलाता है — जैसे कि पूरा हाथ हिलाता है। धीरे-धीरे वह हाथ के अलग-अलग हिस्सों जैसे उंगलियों पर नियंत्रण प्राप्त करता है, और अंततः हाथ व उंगलियों को एकीकृत रूप से प्रयोग करना सीखता है। यह प्रक्रिया केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक विकास में भी देखी जाती है, जहाँ बच्चा विभिन्न अनुभवों और प्रतिक्रियाओं को समन्वयित करता है और उन्हें एक संगठित व्यवहार में ढालता है। इस सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है कि विकास केवल वृद्धि नहीं, बल्कि समूह क्रियाओं का तालमेल और संतुलन भी है, जो किसी भी बच्चे के समग्र विकास के लिए अनिवार्य होता है।

Also Read : वृद्धि और विकास के सिद्धांत, वृद्धि और विकास के सिद्धांत की व्याख्या principles of growth and development

9. परस्पर संबंध का सिद्धांत (Principle of Interrelation)

परस्पर संबंध का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि मनुष्य के विभिन्न विकासात्मक पहलू—जैसे शारीरिक, मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास—आपस में गहराई से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। जब व्यक्ति के शरीर के अंगों—विशेषकर ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ—सक्रिय और सक्षम बनते हैं, तो उसके मानसिक और संवेगात्मक क्षमताएँ भी विकसित होने लगती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे-जैसे बच्चे का शारीरिक विकास होता है और वह चलना-फिरना, बोलना, देखना और सुनना सीखता है, वैसे-वैसे उसके सोचने, बोलने और सामाजिक तौर-तरीकों में भी सुधार आता है। इस परस्परता को फलदायी बनाने के लिए उचित वातावरण, पोषण और शिक्षा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। यदि किसी एक क्षेत्र में रुकावट आती है, तो वह अन्य सभी क्षेत्रों के विकास को प्रभावित कर सकती है। अतः यह सिद्धांत संपूर्ण और संतुलित विकास की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

10. समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of Uniform Pattern)

यह सिद्धांत बताता है कि हर जीव प्रजाति, विशेष रूप से मानव जाति, एक निश्चित और समान विकासात्मक प्रतिमान का पालन करती है। इसका अर्थ है कि सभी मानव शिशुओं में विकास की प्रक्रिया—चाहे वे किसी भी देश, नस्ल या संस्कृति से हों—लगभग एक जैसी होती है। उदाहरण के तौर पर, हर शिशु पहले सिर उठाना, फिर बैठना, रेंगना, खड़ा होना और फिर चलना सीखता है—यह क्रम एक समान रहता है। यह समानता दर्शाती है कि मानव विकास एक स्वाभाविक और जैविक प्रक्रिया है जो निश्चित क्रम और नियमों के अनुसार होती है। हालांकि विकास की गति में थोड़ा अंतर हो सकता है, पर विकास के चरण और उनकी दिशा विश्वभर में समान रहती है, जो इस सिद्धांत को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करती है।

Also Read: बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक या बाल विकास पर पड़ने वाले प्रभाव

11. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment)

यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि मानव विकास केवल आनुवंशिक गुणों या केवल पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। जैसे एक बीज में वृक्ष बनने की क्षमता तो होती है, लेकिन उसके पूर्ण विकास के लिए उपयुक्त मिट्टी, पानी, हवा और सूर्य की आवश्यकता होती है, वैसे ही बालक में जन्मजात क्षमताएँ तो होती हैं, परंतु यदि उसे अनुकूल और समृद्ध वातावरण न मिले, तो उसका समुचित विकास संभव नहीं हो पाता। उदाहरणस्वरूप, 1951 में लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में “रामू” नामक एक बच्चा लाया गया था, जिसे भेड़ियों ने पाला था। उसका व्यवहार और विकास पूर्णतः भेड़ियों के जैसा था, क्योंकि वह मानवीय वातावरण से वंचित था। यह घटना इस सिद्धांत की पुष्टि करती है कि आनुवंशिकता से प्राप्त क्षमताओं के विकास के लिए अनुकूल वातावरण अत्यंत आवश्यक है। इसलिए, शैक्षिक और सामाजिक दृष्टिकोण से यह सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शिक्षा, परवरिश और संस्कार के महत्व को रेखांकित करता है।

Very Important notes for B.ed.: बालक के विकास पर वातावरण का प्रभाव(balak par vatavaran ka prabhav) II sarva shiksha abhiyan (सर्वशिक्षा अभियान) school chale hum abhiyan II शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक II किशोरावस्था को तनाव तूफान तथा संघर्ष का काल क्यों कहा जाता है II जेंडर शिक्षा में संस्कृति की भूमिका (gender shiksha mein sanskriti ki bhumika) II मैस्लो का अभिप्रेरणा सिद्धांत, maslow hierarchy of needs theory in hindi II थार्नडाइक के अधिगम के नियम(thorndike lows of learning in hindi) II थार्नडाइक का उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत(thorndike theory of learning in hindi ) II स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार , जीवन दर्शन, शिक्षा के उद्देश्य, आधारभूत सिद्धांत II महात्मा गांधी के शैक्षिक विचार, शिक्षा का उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शैक्षिक चिंतान एवं सिद्धांत II मुदालियर आयोग के सुझाव, मुदालियर आयोग की सिफारिश, माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53 II विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव, राधाकृष्णन कमीशन बी एड नोट्स II त्रिभाषा सूत्र क्या है(Three-language formula)- आवश्यकता, विशेषताएं, लागू करने में समस्या, विभिन्न आयोगों द्वारा सुझाव, लाभ, चुनौतियाँ,वर्तमान परिप्रेक्ष्य में त्रि-भाषा सूत्र की प्रासंगिकता

1 thought on “विकास के सिद्धान्त, Vikas Ke Siddhant (PRINCIPLES OF DEVELOPMENT)”

Leave a Comment