कोठारी आयोग की सिफारिशें, कोठारी आयोग (1964-1966), राष्ट्रीय शिक्षा आयोग

कोठारी आयोग की सिफारिशें, कोठारी आयोग (1964-1966)

कोठारी आयोग की सिफारिशें, कोठारी आयोग (1964-1966)

भारत में शिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद इसे एक नई दिशा देने की आवश्यकता महसूस हुई। स्वतंत्र भारत को ऐसी शिक्षा प्रणाली की जरूरत थी जो न केवल ज्ञान प्रदान करे बल्कि सामाजिक समरसता, आर्थिक विकास और राष्ट्रीय एकता को भी मजबूती दे। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 1964 में “राष्ट्रीय शिक्षा आयोग” का गठन किया, जिसे आमतौर पर कोठारी आयोग कहा जाता है। इस आयोग के अध्यक्ष प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. डी. एस. कोठारी थे, जो उस समय UGC (University Grants Commission) के अध्यक्ष भी थे।

कोठारी आयोग क्या है?

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-1966), जिसे कोठारी आयोग के नाम से भी जाना जाता है, भारत में शैक्षिक क्षेत्र के सभी पहलुओं की जांच करने और शिक्षा का एक सामान्य पैटर्न विकसित करने के लिए भारत सरकार द्वारा स्थापित एक तदर्थ आयोग था। इसका उद्देश्य शिक्षा क्षेत्र में सुधार और नीतियों की सलाह देना था ताकि देश की शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और समृद्ध बनाया जा सके।

आयोग का गठन और नेतृत्व: इस आयोग का अध्यक्ष प्रोफेसर दौलत सिंह कोठारी थे, जो उस समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष थे। उनके साथ 17 सदस्य का कोर ग्रुप था, जिन्होंने आयोग के कार्यों में सहयोग किया। इसके अलावा, आयोग के पास 20 विशेषज्ञों का परामर्श पैनल था, जिनका उद्देश्य बेहतर शैक्षणिक प्रणाली तैयार करने में आयोग की मदद करना था।

आयोग की संरचना: कोठारी आयोग भारत में शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने वाला पहला आयोग था, जिसने व्यापक दृष्टिकोण से शिक्षा प्रणाली पर विचार किया। आयोग में कुल 12 कार्य बल शामिल थे, जिनका ध्यान विभिन्न शैक्षिक पहलुओं पर केंद्रित था:

  1. विद्यालय शिक्षा
  2. उच्च शिक्षा
  3. तकनीकी शिक्षा
  4. कृषि शिक्षा
  5. प्रौढ़ शिक्षा
  6. विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान
  7. शिक्षक प्रशिक्षण एवं शिक्षक स्थिति
  8. छात्र कल्याण
  9. नई तकनीकें और तरीके
  10. जनशक्ति
  11. शैक्षिक प्रशासन
  12. शैक्षिक वित्त

इसके अलावा, आयोग में 7 कार्य समूह भी थे, जो विशेष क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते थे:

  1. महिला शिक्षा
  2. पिछड़े वर्गों की शिक्षा
  3. स्कूल भवन
  4. स्कूल-सामुदायिक संबंध
  5. सांख्यिकी
  6. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा
  7. स्कूल के पाठ्यक्रम

कोठारी आयोग ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार और इसके विकास के लिए कई क्रांतिकारी सिफारिशें की, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

कोठारी आयोग की पृष्ठभूमि

❖ गठन का कारण

स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा नीति बिखरी हुई और असंगठित थी। देश में क्षेत्रीय असमानता, सामाजिक विषमता और शिक्षा की गुणवत्ता में भारी अंतर देखने को मिलता था। सरकार ने महसूस किया कि देश के समग्र विकास के लिए एक समर्पित और समन्वित शिक्षा नीति की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से 14 जुलाई 1964 को कोठारी आयोग की स्थापना की गई।

❖ आयोग की संरचना

इस आयोग में 17 सदस्य थे, जिनमें विभिन्न क्षेत्रों से शिक्षाविद, वैज्ञानिक, नीति-निर्माता और प्रशासक शामिल थे। डॉ. कोठारी की अध्यक्षता में यह आयोग पूरे देश में भ्रमण कर शिक्षा की स्थिति का आकलन किया और लगभग 20 महीने तक काम करने के बाद 1966 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।

कोठारी आयोग के उद्देश्य

कोठारी आयोग के सामने कुछ प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए गए थे:

  1. एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण करना जो सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दे।

  2. शिक्षा को आर्थिक विकास और व्यक्तिगत विकास का आधार बनाना।

  3. शिक्षा के स्तर पर समानता, गुणवत्ता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करना।

  4. शिक्षा को रोज़गारोन्मुखी, तकनीकी, और वैज्ञानिक बनाना।

  5. शिक्षा में मूल्य आधारित शिक्षा और सांस्कृतिक चेतना को समावेश करना।

कोठारी आयोग के सदस्य:

कोठारी आयोग की अध्यक्षता प्रोफेसर दौलत सिंह कोठारी ने की थी, जो उस समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में इस आयोग के कुल 17 सदस्य थे। ये सदस्य भारतीय शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से जुड़े हुए थे और शिक्षा के सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव देने में शामिल हुए थे। आयोग के सदस्य निम्नलिखित थे:

  1. प्रोफेसर दौलत सिंह कोठारी – अध्यक्ष
  2. डॉ. एम.एस. कृष्णन – सदस्य
  3. डॉ. शंकर राव – सदस्य
  4. डॉ. यशपाल – सदस्य
  5. प्रोफेसर कंवल मित्तल – सदस्य
  6. डॉ. के. श्रीनिवासन – सदस्य
  7. डॉ. बी.एस. शंकर – सदस्य
  8. डॉ. रामकृष्ण कौल – सदस्य
  9. डॉ. के. एन. आचार्य – सदस्य
  10. डॉ. ल. कृष्णा मूर्ति – सदस्य
  11. प्रोफेसर सी.के. जॉर्ज – सदस्य
  12. डॉ. एन. जयराम – सदस्य
  13. डॉ. बी.डी. शाह – सदस्य
  14. डॉ. गणपत सिंह यादव – सदस्य
  15. डॉ. ए.एन. शिवराम – सदस्य
  16. डॉ. राजेन्द्र यादव – सदस्य
  17. डॉ. ग़ुलाम मोहम्मद – सदस्य

इसके अलावा, 20 अन्य विशेषज्ञों का परामर्श पैनल भी था, जो आयोग को शिक्षा के विभिन्न पहलुओं में मार्गदर्शन प्रदान करता था। इन विशेषज्ञों ने शिक्षा के सुधार के लिए आयोग की सहायता की।

इन सदस्यों और पैनल के सुझावों पर आधारित कोठारी आयोग ने भारतीय शिक्षा प्रणाली के विकास और सुधार के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए थे।

कोठारी आयोग की सिफारिशें, Kothari Aayog Ki Sifarish Hai

1964 में भारत सरकार ने डॉ. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग का गठन किया। इस आयोग को “कोठारी आयोग” (Kothari Commission) के नाम से जाना जाता है। इसका उद्देश्य था – भारतीय शिक्षा प्रणाली की समग्र समीक्षा करना और इसे राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्गठित करना। आयोग ने 1966 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें शिक्षा के हर स्तर के लिए कई दूरदर्शी और परिवर्तनकारी सिफारिशें दी गईं। आइए इन्हें विस्तार से समझते हैं।

1. 10+2+3 शिक्षा प्रणाली

10+2+3 शिक्षा प्रणाली कोठारी आयोग की सबसे क्रांतिकारी और चर्चित सिफारिशों में से एक थी, जिसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था की रूपरेखा को स्थायी रूप से बदल दिया। इस प्रणाली के तहत शिक्षा को तीन प्रमुख चरणों में विभाजित किया गया—प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के 10 वर्ष (कक्षा 1 से 10 तक), इसके बाद 2 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (कक्षा 11 और 12), और अंत में 3 वर्ष की स्नातक स्तर की डिग्री (जैसे बी.ए., बी.एससी., बी.कॉम. आदि)। इस ढांचे ने न केवल शिक्षा के विभिन्न चरणों में स्पष्टता लाई, बल्कि छात्रों को विषयों के चयन में लचीलापन भी प्रदान किया। साथ ही इसने व्यावसायिक और सामान्य शिक्षा के बीच संतुलन स्थापित किया, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार संभव हुआ।

2. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास

राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास कोठारी आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश थी, जिसका उद्देश्य पूरे देश में एक समान शिक्षा प्रणाली लागू करना था ताकि क्षेत्रीय असमानताओं को समाप्त किया जा सके और प्रत्येक छात्र को समान गुणवत्ता की शिक्षा प्राप्त हो। आयोग का मानना था कि यदि सभी राज्यों में समान पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जाए, तो इससे शिक्षा में एकरूपता आएगी और छात्रों के बीच भेदभाव की भावना कम होगी। इस सिफारिश का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना, शिक्षा की गुणवत्ता में समानता लाना और समाज के सभी वर्गों—चाहे वे किसी भी जाति, वर्ग या क्षेत्र से हों—को समान शैक्षणिक अवसर प्रदान करना था।

3. तीन-भाषा सूत्र (Three-Language Formula)

तीन-भाषा सूत्र (Three-Language Formula) कोठारी आयोग की एक दूरदर्शी सिफारिश थी, जिसका उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को बनाए रखते हुए एक समावेशी और एकीकृत शिक्षा प्रणाली स्थापित करना था। इस नीति के अंतर्गत छात्रों को तीन भाषाओं का अध्ययन करना अनिवार्य किया गया—मातृभाषा या स्थानीय भाषा, हिंदी (राष्ट्र भाषा), और अंग्रेज़ी या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा। यह सूत्र न केवल भाषाई समरसता को बढ़ावा देता है, बल्कि छात्रों में बहुभाषी क्षमता विकसित करता है और उन्हें राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर बेहतर संवाद के योग्य बनाता है। इसके अतिरिक्त, यह राष्ट्रीय एकता को भी मजबूती प्रदान करता है, क्योंकि विभिन्न भाषाओं के प्रति सम्मान और समझ का भाव उत्पन्न होता है।

4. मूल्य आधारित शिक्षा (Value-Based Education)

मूल्य आधारित शिक्षा (Value-Based Education) कोठारी आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश थी, जिसमें शिक्षा को केवल ज्ञान अर्जन का माध्यम न मानकर उसे चरित्र निर्माण और नैतिक मूल्यों के विकास का साधन माना गया। आयोग का मत था कि एक सशक्त और जिम्मेदार नागरिक के निर्माण के लिए शिक्षा में नैतिक शिक्षा का समावेश अत्यंत आवश्यक है। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत सत्यनिष्ठा, अनुशासन, समाज सेवा, सहिष्णुता और राष्ट्रीयता जैसे मूल्यों को विद्यार्थियों में विकसित करने पर विशेष बल दिया गया। इस प्रकार की शिक्षा न केवल विद्यार्थियों को उत्कृष्ट इंसान बनने में सहायता करती है, बल्कि एक समरस, संगठित और नैतिक रूप से सशक्त समाज की नींव भी रखती है।

5. शिक्षकों की गुणवत्ता और प्रशिक्षण

शिक्षकों की गुणवत्ता और प्रशिक्षण कोठारी आयोग की दृष्टि में शिक्षा व्यवस्था की सफलता का मूल आधार था, क्योंकि आयोग का स्पष्ट मत था कि “एक आदर्श शिक्षा प्रणाली की रीढ़ – शिक्षक होते हैं।” इसलिए आयोग ने शिक्षकों की गुणवत्ता सुधारने और उन्हें प्रेरित रखने के लिए कई अहम सिफारिशें कीं। इसमें योग्य और समर्पित शिक्षकों की नियुक्ति को प्राथमिकता देना, शिक्षण से पहले पूर्व-प्रशिक्षण तथा सेवा-काल के दौरान निरंतर प्रशिक्षण अनिवार्य करना शामिल था। साथ ही, शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन, सामाजिक सुरक्षा, पदोन्नति के अवसर और उनके लिए निरंतर कौशल विकास कार्यक्रम उपलब्ध कराना भी आवश्यक बताया गया। इन सिफारिशों का उद्देश्य शिक्षकों को न केवल शिक्षण में दक्ष बनाना था, बल्कि उन्हें समाज में एक प्रतिष्ठित और प्रेरक स्थान भी प्रदान करना था।

6. शिक्षा का व्यावसायीकरण रोकना

शिक्षा का व्यावसायीकरण रोकना कोठारी आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक दृष्टिकोण को खारिज करते हुए इसे “सेवा का क्षेत्र” मानने की सिफारिश की। आयोग का मानना था कि शिक्षा को व्यापार नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह समाज के विकास और नागरिकों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस दृष्टिकोण के तहत, निजी शिक्षण संस्थानों में पारदर्शिता लाने, समान प्रवेश प्रक्रिया और शुल्क संरचना में नियंत्रण की आवश्यकता बताई गई। इसके अतिरिक्त, शिक्षा के मानवीय पक्ष को प्राथमिकता देते हुए आयोग ने यह सुनिश्चित करने की सिफारिश की कि शिक्षा का उद्देश्य केवल आर्थिक लाभ नहीं, बल्कि समाज के सर्वांगीण कल्याण और विकास को बढ़ावा देना होना चाहिए।

7. सामाजिक उपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW)

सामाजिक उपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW) कोठारी आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश थी, जो शिक्षा को केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न रखने की आवश्यकता पर बल देती है। आयोग ने छात्रों को किताबों के बाहर की दुनिया से जोड़ने और उन्हें प्रयोगात्मक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया, ताकि वे समाज के प्रति जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का अनुभव कर सकें। कुछ अनुशंसित गतिविधियाँ जैसे कृषि और बागवानी, हस्तकला, स्वच्छता अभियान और सामुदायिक सेवा छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती हैं और उन्हें समाज की भलाई में योगदान देने के लिए प्रेरित करती हैं। इन गतिविधियों का उद्देश्य न केवल कार्यकुशलता का विकास करना था, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध भी छात्रों में जागरूक करना था, जिससे वे अपने आसपास के समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकें।

8. समान शैक्षिक अवसर (Equal Educational Opportunity)

समान शैक्षिक अवसर (Equal Educational Opportunity) कोठारी आयोग का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य था, जिसमें यह सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई कि हर नागरिक को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार मिले। आयोग ने विशेष रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग, महिलाओं और ग्रामीण छात्रों के लिए विशेष योजनाओं की आवश्यकता पर बल दिया, ताकि वे भी उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसके अलावा, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाने की सिफारिश की गई, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। इसके साथ ही, छात्रवृत्तियाँ और शैक्षिक सहायता कार्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया गया, ताकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्र भी शिक्षा की ओर कदम बढ़ा सकें। इन उपायों के माध्यम से आयोग ने शिक्षा में समानता और अवसरों की सुलभता सुनिश्चित करने का प्रयास किया।

9. शिक्षा पर सरकारी व्यय में वृद्धि

शिक्षा पर सरकारी व्यय में वृद्धि कोठारी आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए एक महत्वपूर्ण सिफारिश की थी, जिसमें यह कहा गया था कि शिक्षा पर खर्च को GDP के कम से कम 6% तक बढ़ाया जाए। आयोग का मानना था कि यदि शिक्षा के लिए उचित वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाएं, तो इससे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार किया जा सकता है। इसके तहत आधारभूत संरचना का विकास, शिक्षकों की भर्ती और प्रशिक्षण, तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता, और अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहन दिया जा सकता है। यह निवेश न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाएगा, बल्कि समाज में विकास और समृद्धि की दिशा में भी योगदान करेगा।

10. उच्च शिक्षा में सुधार

उच्च शिक्षा में सुधार कोठारी आयोग ने भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली को गुणवत्ता, नवाचार और रोजगारपरकता की दृष्टि से सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर जोर दिया। आयोग ने यह माना कि उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए। इसके तहत विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को बढ़ावा देने, पाठ्यक्रमों का आधुनिकीकरण करने और रोजगारोन्मुख शिक्षा प्रदान करने की सिफारिश की गई। इसके साथ ही, शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए एक मूल्यांकन तंत्र स्थापित करने का सुझाव दिया गया, ताकि छात्रों की दक्षता और विश्वविद्यालयों की कार्यप्रणाली का निरंतर मूल्यांकन किया जा सके। इन सुधारों का उद्देश्य उच्च शिक्षा को रोजगार योग्य और समकालीन चुनौतियों के लिए उपयुक्त बनाना था।

11. तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा का विकास

तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा का विकास कोठारी आयोग ने यह मानते हुए कि “कुशल जनशक्ति ही आर्थिक विकास का आधार है”, तकनीकी शिक्षा पर विशेष जोर दिया। आयोग का उद्देश्य था कि छात्रों को प्रारंभ से ही हुनरमंद और रोजगार योग्य बनाया जाए, ताकि वे स्नातक होने के बाद आसानी से रोजगार प्राप्त कर सकें। इसके लिए आईटीआई, पॉलिटेक्निक, और अन्य तकनीकी संस्थानों का विस्तार करने की सिफारिश की गई। इसके अतिरिक्त, इंडस्ट्री-एजुकेशन लिंक को मजबूत करने का सुझाव दिया गया, ताकि छात्रों को उद्योगों की वास्तविक आवश्यकताओं और विकासात्मक जरूरतों से मेल खाते प्रशिक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार, आयोग ने तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देकर न केवल रोजगार के अवसरों में वृद्धि की, बल्कि आर्थिक विकास को भी तेज किया।

12. महिला शिक्षा को प्राथमिकता

महिला शिक्षा को प्राथमिकता कोठारी आयोग ने यह मानते हुए कि महिला सशक्तिकरण की नींव शिक्षा है, महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए विशेष रणनीतियाँ सुझाईं। आयोग ने बालिका विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की, ताकि लड़कियाँ सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसके अतिरिक्त, छात्रवृत्तियाँ और सहायता योजनाएं लागू करने का प्रस्ताव किया गया, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की लड़कियाँ भी शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षिकाओं की संख्या बढ़ाना और उन्हें प्रोत्साहित करना भी आयोग के प्रस्तावों में शामिल था, ताकि शिक्षा में लैंगिक समानता सुनिश्चित हो सके। साथ ही, समाज में महिला शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने का भी सुझाव दिया गया, ताकि महिलाओं की शिक्षा के महत्व को हर स्तर पर स्वीकार किया जा सके और समाज में सकारात्मक बदलाव आए।

कोठारी आयोग (1964-66) की प्रमुख सिफारिशें – संक्षेप में

1. निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
  • 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की सिफारिश की गई।
  • यह अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 के अनुरूप थी।
2. त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula)
  • हिंदी भाषी राज्यों में: हिंदी, अंग्रेज़ी और एक दक्षिण भारतीय भाषा।
  • गैर-हिंदी भाषी राज्यों में: क्षेत्रीय भाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी।
  • उद्देश्य: भाषाई संतुलन और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना।
3. भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन
  • संस्कृत को एक शास्त्रीय और सांस्कृतिक भाषा के रूप में बढ़ावा देने की सिफारिश।
  • अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को उच्च शिक्षा और वैश्विक संपर्क के लिए आवश्यक माना गया।
  • क्षेत्रीय भाषाओं में प्रारंभिक शिक्षा देने की सिफारिश।
4. शिक्षक संबंधी सिफारिशें
  • शिक्षकों के लिए उचित वेतन, नौकरी की सुरक्षा, और प्रशिक्षण की व्यवस्था।
  • शिक्षकों को शैक्षणिक स्वतंत्रता और अनुसंधान में भागीदारी की अनुमति देने की सिफारिश।
5. सामाजिक न्याय और समानता पर बल
  • बालिका शिक्षा, पिछड़े वर्ग, जनजातीय समुदाय, और विकलांग बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता बताई।
  • शिक्षा के ज़रिए समान अवसर प्रदान करने पर ज़ोर।
6. विज्ञान और गणित का महत्व
  • विज्ञान और गणित को शिक्षा का मूल आधार बनाने की सिफारिश की गई।
  • इन विषयों को राष्ट्रीय विकास और तकनीकी प्रगति के लिए आवश्यक माना गया।
7. उच्च शिक्षा और अनुसंधान
  • विश्वविद्यालयों में अनुसंधान, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं और प्रशिक्षण के लिए बेहतर संसाधन मुहैया कराने की सिफारिश।
  • स्नातकोत्तर शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और नवोन्मेषी बनाने पर बल।

कोठारी आयोग का प्रभाव, कोठारी आयोग (1964-66) की सिफारिशों के परिणाम

1. 10+2+3 शिक्षा प्रणाली का कार्यान्वयन
  • कोठारी आयोग की सिफारिश के अनुसार, देशभर में 10+2+3 संरचना को अपनाया गया:

    • 10 वर्ष की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा

    • 2 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा

    • 3 वर्ष की स्नातक स्तर की शिक्षा

  • यह प्रणाली आज भी भारत में शिक्षा का प्रमुख ढांचा बनी हुई है।

2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968)
  • कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1968 में भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई गई।

  • इस नीति को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में लागू किया गया।

  • यह शिक्षा के मानकीकरण और गुणवत्ता सुधार की दिशा में ऐतिहासिक कदम था।

3. 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर प्रभाव
  • कोठारी आयोग की विचारधारा और दृष्टिकोण ने 1986 की नई शिक्षा नीति (राजीव गांधी सरकार के समय) को भी प्रेरित किया।

  • इसमें सार्वभौमिक शिक्षा, महिला शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और अनुसंधान को प्राथमिकता दी गई।

4. शिक्षा का प्रशासनिक पुनर्गठन
  • आयोग की सिफारिशों पर अमल करते हुए, भारत की शिक्षा व्यवस्था को तीन स्तरों पर विभाजित किया गया:

    • राष्ट्रीय निकाय (जैसे – UGC, NCERT)

    • राज्य शिक्षा निकाय

    • केंद्रीय शिक्षा बोर्ड (जैसे – CBSE)

  • इस ढांचे ने शिक्षा की निगरानी, नियोजन और क्रियान्वयन को अधिक सुव्यवस्थित बनाया।

कोठारी आयोग की आवश्यकता

कोठारी आयोग की आवश्यकता (1964-66) देश की मौजूदा शिक्षा प्रणाली में मौजूद खामियों के कारण महसूस की गई। उस समय की शिक्षा प्रणाली में कुछ प्रमुख समस्याएँ थीं, जिनकी वजह से आयोग की सिफारिशें जरूरी हो गईं। पहली बड़ी खामी यह थी कि शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के विचार का अभाव था, यानी यह शिक्षा केवल बौद्धिक विकास तक सीमित थी, जबकि समाज के समग्र विकास और राष्ट्रीय निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया। दूसरी समस्या यह थी कि शिक्षा प्रणाली कृषि को पर्याप्त महत्व नहीं देती थी, जबकि उस समय अधिकांश भारतीय जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी। तीसरी खामी यह थी कि शैक्षिक प्रणाली ने छात्रों के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के विकास को प्राथमिकता नहीं दी, जिससे छात्र केवल शैक्षणिक ज्ञान तक सीमित रह गए थे। इसके अलावा, शिक्षा प्रणाली में केवल शैक्षणिक भाग पर अत्यधिक जोर दिया गया था, जबकि जीवन के अन्य पहलुओं जैसे समाजिक जिम्मेदारी, सेवा भावना, और चरित्र निर्माण को नजरअंदाज किया गया। इन सभी कारणों से कोठारी आयोग की आवश्यकता महसूस की गई, ताकि शिक्षा प्रणाली में समग्र सुधार किया जा सके।

कोठारी आयोग के गुण और दोष

कोठारी आयोग के गुण (Merits of Kothari Commission)

  1. सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा का महत्व
    कोठारी आयोग ने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का प्रभावशाली माध्यम मानते हुए, शिक्षा के सभी स्तरों में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। आयोग ने यह माना कि शिक्षा के द्वारा समाज में सकारात्मक बदलाव लाए जा सकते हैं और इसके जरिए समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  2. समान स्कूल व्यवस्था
    आयोग ने समाजवाद और समानता पर आधारित एक समान स्कूल व्यवस्था की सिफारिश की, जिसमें सभी वर्गों के बालकों और बालिकाओं को शिक्षा के समान अवसर प्रदान किए जाएं। इस प्रकार, आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक असमानताओं को कम करने का प्रयास किया।
  3. त्रिभाषा सूत्र में सुधार
    कोठारी आयोग ने त्रिभाषा सूत्र के माध्यम से भाषाई समस्या को हल करने के उपाय सुझाए। इसके तहत, मातृभाषा, हिंदी और एक अन्य आधुनिक भाषा को शिक्षा के लिए अनिवार्य किया गया, जिससे छात्रों को भाषाई कौशल में वृद्धि हो और समाज में भाषाई समरसता बनी रहे।
  4. विज्ञान, गणित और तकनीकी शिक्षा पर जोर
    आयोग ने विज्ञान, गणित और तकनीकी विषयों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए विशेष ध्यान दिया। इन विषयों को भारतीय विकास और उन्नति के लिए महत्वपूर्ण माना गया, जिससे देश की औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति में मदद मिल सके।
  5. माध्यमिक शिक्षा को नि:शुल्क करने का प्रस्ताव
    कोठारी आयोग ने यह प्रस्ताव पेश किया कि 1986 तक माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा नि:शुल्क कर दी जाएगी। इससे सभी वर्गों के बालकों और बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर मिलेंगे और देश में शिक्षा का स्तर भी बढ़ेगा।
  6. शिक्षा व्यवस्था की आलोचना और सुधार
    आयोग ने तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था की अनियमितताओं की कठोर आलोचना की और उन समस्याओं को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए। इन सुधारों का उद्देश्य शिक्षा को अधिक प्रभावी और समान बनाना था।
  7. पाठ्यक्रम में सुधार
    कोठारी आयोग ने प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम में सुधार की सिफारिश की, ताकि वह अधिक लचीला और छात्र उपयोगी बने। इसके द्वारा शिक्षा को छात्रों की जरूरतों और समाज की अपेक्षाओं के अनुसार ढाला गया।
  8. शिक्षक स्थिति और वेतन में सुधार
    आयोग ने अध्यापकों की स्थिति, उनके वेतन, और पदोन्नति के बारे में अध्ययन किया। इसके परिणामस्वरूप शिक्षकों के वेतन और कामकाजी परिस्थितियों में सुधार किए गए, जिससे वे अधिक आकर्षक और लाभकारी बन सकें, और इस प्रक्रिया में उनके पेशेवर विकास को भी बढ़ावा मिला।

इस प्रकार, कोठारी आयोग ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को समग्र रूप से सुदृढ़ करने के लिए कई क्रांतिकारी सुधारों की सिफारिश की, जो आज भी शिक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं।

कोठारी आयोग के दोष (Defects of Kothari Commission)

  1. बेसिक शिक्षा की उपेक्षा
    कोठारी आयोग ने महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित बेसिक शिक्षा को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया। आयोग के सुझावों में कहीं भी बेसिक शिक्षा का उल्लेख नहीं किया गया, जिसके कारण जी. एस. आचार्य ने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को “बेसिक शिक्षा का मृत्यु पत्र” (Death Letter) कहा। यह आयोग की प्रमुख आलोचनाओं में से एक थी।
  2. अंग्रेजी को अनिश्चितकालीन महत्व देना
    कोठारी आयोग ने शिक्षा के विभिन्न स्तरों में अंग्रेजी भाषा को अत्यधिक महत्व दिया, जिससे कई आलोचनाएँ उठीं। प्रकाशवीर शास्त्री ने इस बात को अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के रूप में देखा, क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा को अनिश्चितकालीन प्राथमिकता देने से भारतीय भाषाओं की उपेक्षा हुई और यह भारतीय संस्कृति और भाषा के विकास में रुकावट बन गया।
  3. नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा
    आयोग ने शिक्षा के सुधार के लिए जो भी सिफारिशें कीं, उनमें नैतिक और आध्यात्मिक विषयों को उचित स्थान नहीं दिया गया। केवल उन पहलुओं की चर्चा की गई जो शिक्षा नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए था, लेकिन नैतिकता और अध्यात्मिकता पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
  4. आदर्शवादी और अप्रवर्तनीय सुझाव
    कई शिक्षाशास्त्रियों ने कोठारी आयोग की सिफारिशों पर आलोचना की और इसे आदर्शवादी बताया, जो वास्तविकता से मेल नहीं खातीं। उनके अनुसार, आयोग के सुझाव व्यावहारिक नहीं थे और शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ये पर्याप्त नहीं थे।
  5. स्त्री शिक्षा की उपेक्षा
    स्त्री शिक्षा के संबंध में कोठारी आयोग के सुझावों को अपर्याप्त माना गया। यह महसूस किया गया कि आयोग ने महिला शिक्षा को महत्व नहीं दिया और इसे अवहेलना किया, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं के लिए शिक्षा के अवसरों में कमी रही।
  6. लिपि का चयन
    आयोग ने शिक्षा के स्तर में जो लिपि का प्रयोग किया, वह रोमन लिपि थी, जबकि भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि अधिक उपयुक्त मानी जाती है। रोमन लिपि का उपयोग भारतीय भाषाओं के संदर्भ में कई गलतियों का कारण बना, और यह एक अधूरा और दोषपूर्ण निर्णय था।

इस प्रकार, कोठारी आयोग की सिफारिशें कई दृष्टिकोणों से आलोचना का विषय बनीं, क्योंकि कुछ निर्णय व्यवहारिक दृष्टि से सही नहीं थे और कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया।

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