शैशवावस्था की विशेषताएं, शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ: (Chief Characteristics of Infancy in Hindi) Shaishvavastha Ki Visheshtaen
परिचय (Introduction):
शैशवावस्था (Infancy) मनुष्य के जीवन का सबसे प्रारंभिक और महत्वपूर्ण चरण होता है, जो जन्म से लेकर लगभग पाँच वर्ष की आयु तक फैला होता है। इस अवधि को बाल विकास की नींव माना जाता है, क्योंकि इसी समय मस्तिष्क, शारीरिक संरचना, संवेग, सामाजिक व्यवहार, नैतिकता और भाषा का मूलभूत विकास होता है।
इस अवस्था में बालक बाहरी दुनिया से संपर्क स्थापित करता है, प्रतिक्रिया करना सीखता है और सीखने की तीव्र इच्छा के साथ अपने चारों ओर के वातावरण को समझने लगता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इसे “जीवन की सबसे संवेदनशील अवधि” बताया है, क्योंकि शिशु का भविष्य इसी अवस्था में हुए अनुभवों और शिक्षाओं पर आधारित होता है।
शैशवावस्था की विशेषताएं
1. शारीरिक विकास में तीव्रता (Rapid Physical Growth):
शैशवावस्था में शारीरिक विकास सबसे तीव्र गति से होता है। जन्म के समय शिशु का वजन लगभग 2.5 से 3.5 किलोग्राम और लंबाई 45-50 सेंटीमीटर होती है, जो एक वर्ष के भीतर लगभग दोगुनी हो जाती है। तीन वर्षों में शिशु की हड्डियाँ, मांसपेशियाँ और संवेदी अंग (eyes, ears, etc.) पूर्णतः विकसित होने लगते हैं।
- सिर का आकार प्रारंभ में शरीर के अन्य हिस्सों की तुलना में बड़ा होता है, जो मस्तिष्क विकास की ओर संकेत करता है।
- मांसपेशियाँ मज़बूत होती हैं जिससे बैठना, रेंगना, खड़ा होना और चलना संभव होता है।
- इस अवस्था में मोटर स्किल्स (motor skills) भी विकसित होती हैं – जैसे हाथों का प्रयोग, उंगलियों का समन्वय, वस्तुओं को पकड़ना आदि।
2. मानसिक प्रक्रियाओं में तीव्रता (Rapidity in Mental Development):
इस अवधि में शिशु का मानसिक विकास अत्यंत सक्रिय होता है। शिशु की ज्ञानेंद्रियाँ तेज़ होती हैं, और वह वातावरण के प्रति सजग हो जाता है। उसके अंदर सीखने, समझने, विचार करने और समस्याओं को हल करने की क्षमताओं का विकास होता है।
- ध्यान (Attention): प्रारंभ में ध्यान बहुत अल्पकालिक होता है लेकिन धीरे-धीरे यह अवधि बढ़ती जाती है।
- स्मृति (Memory): शिशु उन वस्तुओं और व्यक्तियों को पहचानना शुरू करता है, जो उसकी दिनचर्या में नियमित होते हैं।
- संवेदना और प्रत्यक्षीकरण: वह स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, गंध और ध्वनि के माध्यम से अनुभव प्राप्त करता है।
3. तीव्र शिक्षण क्षमता (Fast Learning Capacity):
शैशवावस्था में बालक में सीखने की अत्यंत तीव्र प्रवृत्ति होती है। वह अपने परिवेश से निरंतर नई-नई बातें सीखता है।
- अनौपचारिक शिक्षा: बालक इस अवस्था में अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों से बिना औपचारिक शिक्षा के बहुत कुछ सीखता है।
- भाषा सीखना: यह अवधि भाषा अधिग्रहण की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील होती है। शिशु ध्वनियों की नकल कर बोलना सीखता है।
गेसेल का प्रसिद्ध कथन है: “बालक पहले 6 वर्षों में जितना सीखता है, वह बाद के 12 वर्षों में उससे कम होता है।”
4. कल्पना शक्ति का विस्तार (Imaginative Power):
शिशु की कल्पना शक्ति अत्यंत प्रबल होती है, जिससे वह वास्तविकता और कल्पना के बीच अंतर नहीं कर पाता। वह परियों, जानवरों या कार्टून पात्रों को सच मान लेता है और उनकी दुनिया में जीने लगता है। उदाहरणस्वरूप, वह लकड़ी की लाठी को घोड़ा समझ कर उस पर सवारी करता है या खाली डिब्बे को ट्रेन मान कर उसमें यात्रा करने का अभिनय करता है। इस प्रकार की कल्पनाएँ उसे न केवल आनंद देती हैं, बल्कि उसकी रचनात्मकता को भी विकसित करती हैं। हालांकि, कभी-कभी यह अत्यधिक कल्पना (over-imagination) दुर्घटनाओं या भ्रम की स्थिति का कारण भी बन सकती है।
5. दोहराव की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition):
शिशु में दोहराव की प्रवृत्ति बहुत सामान्य होती है, जिसमें वह किसी शब्द, वाक्य, कविता, कहानी या क्रिया को बार-बार दोहराने की जिद करता है। उदाहरणस्वरूप, वह एक ही कहानी को कई बार सुनना चाहता है या किसी खेल को बार-बार खेलना पसंद करता है। यह दोहराव केवल मनोरंजन का साधन नहीं होता, बल्कि उसके लिए सुरक्षा और स्थायित्व की भावना उत्पन्न करता है। साथ ही, यह प्रक्रिया उसकी स्मृति को सुदृढ़ करने, भाषा विकास में सहायता करने और आत्मविश्वास बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
6. पूर्णतः निर्भरता (Total Dependence on Others):
शैशवावस्था में शिशु अपनी सभी भौतिक, मानसिक और संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्णतः अपने माता-पिता या देखभालकर्ताओं पर निर्भर होता है। वह स्वयं भोजन नहीं कर सकता, कपड़े नहीं पहन सकता, नहा नहीं सकता और न ही अपनी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। उसके जीवन की प्रत्येक आवश्यकता—जैसे खाना, सोना, साफ-सफाई, चिकित्सा और भावनात्मक संतुलन—दूसरों की सहायता से ही पूरी होती है। इस अवस्था में उसे अधिकतम स्नेह, संरक्षण और निरंतर देखभाल की आवश्यकता होती है, क्योंकि यही उसके भावनात्मक विकास की नींव बनाते हैं और उसमें विश्वास तथा सुरक्षित वातावरण की भावना उत्पन्न करते हैं।
7. अनुकरण द्वारा सीखना (Learning by Imitation):
शिशु के सीखने की प्रक्रिया में अनुकरण एक अत्यंत प्रभावी माध्यम होता है, जिसके द्वारा वह अपने आसपास के वातावरण से विभिन्न व्यवहारों को आत्मसात करता है। वह माता-पिता, भाई-बहन और अन्य लोगों के बोलचाल, हावभाव, चाल-ढाल तथा दैनिक क्रियाकलापों का बारीकी से निरीक्षण करता है और उसी का अनुकरण करने का प्रयास करता है। शिशु की यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वह बिना समझे भी उन क्रियाओं को दोहराने लगता है जो वह अपने आसपास देखता है। यदि उसके सामने सकारात्मक व्यवहार प्रस्तुत किए जाएँ, तो उसमें अच्छे संस्कार, सामाजिक गुण और नैतिक मूल्य विकसित होते हैं। वहीं, यदि वह नकारात्मक या आक्रामक व्यवहारों का साक्षी बनता है, तो उनमें भी वही अवांछनीय प्रवृत्तियाँ जन्म ले सकती हैं। इसलिए शिशु के परिवेश को सकारात्मक और अनुकरणीय बनाए रखना अत्यंत आवश्यक होता है।
8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार (Instinctive Behavior):
शैशवावस्था में शिशु का अधिकांश व्यवहार उसकी जैविक और प्राकृतिक प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जिन्हें “मूल प्रवृत्तियाँ” कहा जाता है। ये प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं और किसी भी सीख या सामाजिक प्रशिक्षण से पूर्व ही सक्रिय हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, भूख लगने पर शिशु रोता है या पास में पड़ी कोई भी वस्तु मुँह में डालने की कोशिश करता है। इसी प्रकार, यदि उसकी कोई प्रिय वस्तु कोई छीन ले तो वह तुरंत रोने लगता है या विरोध करता है। ये सभी प्रतिक्रियाएँ उसकी स्वाभाविक जरूरतों और आत्मरक्षा की प्रवृत्तियों से उत्पन्न होती हैं। हालांकि जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, समाजीकरण और शिक्षा के माध्यम से इन प्रवृत्तियों को नियंत्रित और संयमित करना सिखाया जाता है, जिससे वह सामाजिक रूप से अनुकूल व्यवहार करने लगता है।
9. संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति (Emotional Expression):
शैशवावस्था में शिशु की संवेगात्मक अभिव्यक्ति अत्यंत तीव्र और स्वाभाविक होती है, क्योंकि वह अपने भावों को नियंत्रित करना नहीं सीख पाया होता। वह बिना किसी झिझक के रोता है, हँसता है, चीखता है, गुस्सा करता है या अपनी खुशी व नाराज़गी को पूरी तीव्रता से प्रकट करता है। किसी इच्छा की पूर्ति न होने पर वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता है, तो वहीं खुशी मिलने पर खिलखिला उठता है। मनोवैज्ञानिक ब्रिजेस के अनुसार, दो वर्ष की आयु तक शिशु में भय, क्रोध, प्रेम, पीड़ा, दुःख आदि लगभग सभी मूल संवेगों का विकास हो जाता है। इन संवेगों की अभिव्यक्ति शिशु के संवेगात्मक विकास और उसके व्यक्तित्व निर्माण की प्रारंभिक नींव होती है, जिसे उचित मार्गदर्शन से संतुलित बनाया जा सकता है।
10. आत्मकेंद्रितता और स्वप्रेम (Self-Centered Behavior):
शैशवावस्था में शिशु का व्यवहार अत्यधिक आत्मकेंद्रित होता है, जिसमें वह स्वयं को ही अपने संसार का केंद्र मानता है। वह चाहता है कि उसके माता-पिता का सम्पूर्ण ध्यान, स्नेह और प्यार केवल उसी पर केंद्रित रहे। यदि कोई दूसरा बच्चा माता या पिता की गोद में आता है, तो शिशु के भीतर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है। वह रोता है, चिल्लाता है, कभी-कभी उस बच्चे को धक्का देने या नुकसान पहुँचाने की भी कोशिश करता है। यह व्यवहार “Sibling Rivalry” अर्थात् भाई-बहनों के बीच प्रतिस्पर्धा का प्रारंभिक रूप होता है, जो स्वप्रेम (self-love) और अधिकार की भावना से जन्म लेता है। शिशु यह मानता है कि उसके माता-पिता केवल उसी के हैं और किसी अन्य के साथ उनका स्नेह साझा नहीं किया जा सकता। यह अवस्था बालक के भावनात्मक विकास का एक स्वाभाविक भाग है, जिसे समझदारी से संभालना आवश्यक होता है।
11. नैतिक भावना का अभाव (Lack of Moral Sense):
शैशवावस्था में शिशु में नैतिक भावना का पूर्णतः अभाव होता है क्योंकि उसका बौद्धिक और सामाजिक विकास उस स्तर पर नहीं पहुँचा होता जहाँ वह यह समझ सके कि कौन-सा व्यवहार उचित है और कौन-सा अनुचित। वह केवल अपनी इच्छाओं और भावनाओं के आधार पर कार्य करता है – जो कार्य उसे खुशी, आनंद या संतुष्टि प्रदान करता है, वह वही करता है, चाहे वह सामाजिक दृष्टि से गलत क्यों न हो। उदाहरणतः वह किसी की वस्तु बिना पूछे ले सकता है, तोड़ सकता है, या किसी को चोट पहुँचा सकता है, लेकिन यह सब वह जानबूझकर नहीं करता, बल्कि अनजाने में करता है क्योंकि उसे सही-गलत का बोध नहीं होता। यह नैतिक समझ धीरे-धीरे सामाजिक अनुभव, पारिवारिक अनुशासन और शिक्षा के माध्यम से विकसित होती है, जिससे वह यह सीखता है कि समाज में रहकर कुछ मर्यादाओं और नियमों का पालन करना आवश्यक होता है।
12. सामाजिक भावना का विकास (Growth of Social Behavior):
शैशवावस्था में सामाजिक भावना का विकास धीरे-धीरे होता है। प्रारंभ में शिशु अकेले खेलना पसंद करता है और अपने आस-पास के वातावरण से ही आनंद लेता है। लेकिन जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती है, वह अन्य बच्चों की ओर आकर्षित होने लगता है। लगभग 4 से 6 माह की आयु के बाद वह अन्य बच्चों की ओर देखता है, मुस्कुराता है और उनके प्रति रुचि दिखाने लगता है। 10-12 माह तक पहुँचते-पहुँचते वह न केवल उनके साथ खेलना चाहता है बल्कि उनके साथ अपनी चीजें साझा करने, उनकी सहायता करने और उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव स्थापित करने की कोशिश करता है। वह दूसरे बच्चों के साथ होने पर अधिक उत्साहित और आनंदित महसूस करता है। यह सामाजिक जुड़ाव की प्रारंभिक अवस्था होती है, जिसे “Social Bonding” की शुरुआत माना जाता है। यह विकास शिशु को समूह में रहने, सहयोग, सहानुभूति और सामाजिक नियमों को समझने की दिशा में ले जाता है।
13. प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सीखना (Learning by Sensory Perception):
शैशवावस्था में शिशु का ज्ञान और समझ प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित होता है, क्योंकि वह मानसिक रूप से इतना परिपक्व नहीं होता कि वह प्रतीकात्मक या अमूर्त रूप में कुछ समझ सके। वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों – स्पर्श, दृष्टि, श्रवण, स्वाद और गंध – के माध्यम से चीजों को जानने और समझने की कोशिश करता है। जैसे वह किसी वस्तु को छूकर उसकी बनावट समझता है, रंगों को देखकर पहचानता है, आवाज़ें सुनकर प्रतिक्रिया देता है और स्वाद लेकर पसंद-नापसंद विकसित करता है। यही कारण है कि मॉन्टेसरी और किंडरगार्टन जैसी आधुनिक शिक्षण पद्धतियाँ इस आयु वर्ग के बच्चों को प्रत्यक्ष वस्तुओं और खेल-खेल में सीखने की प्रक्रिया पर ज़ोर देती हैं। इन पद्धतियों में रंग-बिरंगे खिलौनों, स्पर्शयोग्य वस्तुओं, संगीत और चित्रों का प्रयोग बच्चों के संवेदी अनुभवों को समृद्ध करने और उनके मस्तिष्क के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है। प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से सीखना शिशु के बौद्धिक और संवेदनात्मक विकास की नींव तैयार करता है।
14. अन्य शिशुओं के प्रति रुचि (Interest in Other Infants):
शैशवावस्था के दौरान, लगभग एक वर्ष की आयु तक शिशु में अन्य बच्चों के प्रति रुचि दिखने लगती है। प्रारंभ में यह रुचि अस्पष्ट और अनिश्चित होती है, जैसे वह अन्य बच्चों को देखता है, लेकिन उनसे सक्रिय रूप से जुड़ने की बजाय बस उन्हें निरीक्षण करता है। हालांकि, जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती है, यह रुचि अधिक स्पष्ट और विशिष्ट हो जाती है। मनोवैज्ञानिक बी. एफ. स्किनर के अनुसार, शिशु की यह रुचि धीरे-धीरे पसंद और नापसंद के रूप में बदलने लगती है। वह अन्य बच्चों के हावभाव, खेल और गतिविधियों पर प्रतिक्रिया देता है, और कभी-कभी उनसे खेलने की कोशिश करता है। शिशु के लिए यह अनुभव सामाजिक संपर्क और सामूहिक जीवन की समझ विकसित करने की ओर पहला कदम होता है। वह यह सीखता है कि अन्य बच्चों के साथ संवाद और सहयोग उसे न केवल मनोरंजन बल्कि संतुष्टि और सामाजिक आनंद भी प्रदान कर सकते हैं।
15. काम प्रवृत्ति के संकेत (Sexual Instincts in Infancy):
सिग्मंड फ्रायड के अनुसार, शैशवावस्था में शिशु की प्रारंभिक गतिविधियाँ उसकी काम प्रवृत्ति से जुड़ी होती हैं। शिशु अपने जीवन के पहले वर्षों में अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न क्रियाओं को करता है, जो एक प्रकार से काम प्रवृत्ति के प्रारंभिक संकेत होते हैं। जैसे कि स्तनपान, अंगूठा चूसना, और शारीरिक अंगों के साथ जुड़ाव – ये सभी गतिविधियाँ फ्रायड के अनुसार शिशु की यौन ऊर्जा या ‘लिबिडो’ के शुरुआती रूप होते हैं। इस अवस्था में शिशु को अपनी शारीरिक इच्छाओं को नियंत्रित करने या समाजिक सीमाओं को समझने का ज्ञान नहीं होता, और यह व्यवहार स्वाभाविक रूप से शारीरिक और मानसिक विकास का हिस्सा होता है।
यह प्रवृत्ति एक सामान्य और स्वस्थ विकास का हिस्सा होती है, जो शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास की प्रक्रिया में सहायक होती है। हालांकि, जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है, और उचित मार्गदर्शन एवं सामाजिक शिक्षा प्राप्त करता है, यह प्रवृत्ति विकसित होती है और एक संतुलित और स्वस्थ मानसिकता की ओर अग्रसर होती है। इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ शिशु के आत्म-संयम, आत्म-नियंत्रण और सामाजिक व्यवहार को समझने में मदद करती हैं।
निष्कर्ष (Conclusion):
शैशवावस्था मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण नींव होती है। इस अवस्था में शिशु के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक पक्षों का तीव्र विकास होता है। एक सुरक्षित, स्नेहमयी और शिक्षाप्रद वातावरण शिशु के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है।
माता-पिता, शिक्षक और समाज की जिम्मेदारी है कि इस कोमल अवस्था में शिशु को सही दिशा, उचित मूल्य और प्रेमपूर्ण माहौल प्रदान करें, ताकि वह भविष्य में एक संतुलित, सशक्त और नैतिक नागरिक बन सके।
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