त्रिभाषा सूत्र क्या है (Three-language formula)- आवश्यकता, विशेषताएं, लागू करने में समस्या, विभिन्न आयोगों द्वारा सुझाव, लाभ, चुनौतियाँ,वर्तमान परिप्रेक्ष्य में त्रि-भाषा सूत्र की प्रासंगिकता,महत्व
भारत में त्रिभाषा सूत्र की आवश्यकता (three language formula in hindi)
भारत में भाषा समस्या अत्यंत विकट है हमारे देश में कई भाषाएं बोली जाती हैं और यहां विभिन्न वर्गों के लोग निवास करते हैं इतने विभिन्नता के बावजूद यहां पर एकता बनी हुई है। भाषा एक दूसरे से संबंध स्थापित करने का महत्वपूर्ण तत्व है। भाषा के इतिहास को सभ्यता का इतिहास कहा जाता है सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत बने भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी को राजभाषा बनाए जाने की व्यवस्था से त्रिभाषा सूत्र की समस्या और भी जटिल हो गई
राष्ट्रीय की आवश्यकताओं तथा संविधान के आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पढ़ाई जाने वाली समस्याओं पर केंद्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद(CABE) ने सन् 1956 में विचार-विमर्श करके त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया
केंद्र शिक्षा सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तुति भाषा सूचना पर सन् 1967 में इसके सरलीकृत रूप को स्वीकृति प्रदान की गई
इस सूत्र के लागू करने की दिशा में किया गया दोषपूर्ण नियोजन तथा संकल्प के अभाव ने भाषा समस्या को और भी दयनीय स्थिति में पहुंचा दिया इसी के कारण कोठारी आयोग ने भाषाओं के प्रश्न पर विचार करते हुए एक कार्यकारी त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया
त्रिभाषा सूत्र क्या है (Tribhasha Sutra Kya Hai)
त्रिभाषा सूत्र का शब्दार्थ है तीन भाषाओं वाला सूत्र।
केंद्रीय शिक्षा परामर्श बोर्ड ने सेकेंडरी आयोग के सुझाव का समर्थन नहीं किया और सन् 1956 में त्रिभाषा सूत्र का निर्माण कियाा।
इसके अनुसार माध्यमिक स्कूल के प्रत्येक विद्यार्थी को पाठ्यक्रम के जरिए 3 भाषाएं पढ़ानी होगी
१. मातृ भाषा
क) प्रादेशिक भाषा (मातृ भाषा)
ख)मातृ भाषा तथा शास्त्रीय भाषा
ग) प्रादेशिक भाषा तथा शास्त्रीय भाषा
२. अंग्रेजी या आधुनिक भारतीय भाषा
३. हिंदी (अहिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए) या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा (हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए)
मुख्यमंत्री सम्मेलन में (1961) तथा राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा त्रिभाषा सूत्र का समर्थन किया गया। और इसी के अनुसार लोकसभा में 1963 में भाषा बिल पास कर दिया
भाषा अधिनियम के व्यवस्थाएं निम्नलिखित हैं
१. हिंदी: आखिर भारतीय राज्य भाषा (Hindi as the all Indian official language) हिंदी अखिल भारतीय राज्य भाषा होगी
२. अंग्रेजी: सहायक राज्य भाषा(English as the associate official language) जब तक अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी को इच्छा पूर्वक नहीं अपनाया जाता तब तक अंग्रेजी सहायक भाषा के रूप में रखना चाहिए।
३. प्रादेशिक भाषाएं: प्रदेश प्रशासन की भाषाएं(residential language as language of of administration in the state) प्रत्येक प्रदेश के प्रशासन की भाषा उसीज्ञकी प्रदेश की भाषा होगी
४. केंद्रीय सार्वजनिक सेवा आयोग की परीक्षाएं: सभी भाषाओं में होगी। (UPSC exam is all the language) केंद्र सार्वजनिक सेवा आयोग की परीक्षाएं संविधान में दिए गई सभी भाषाओं में आयोजित की जाएगी
त्रिभाषा सूत्र को लागू करने में उत्पन्न समस्या
१. स्कूल पाठ्यक्रम में भाषा के बोझ के प्रति विरोध उत्पन्न होने लगा
२. हिंदी भाषी क्षेत्रों में एक अतिरिक्त आधुनिक भारतीय भाषा के अध्ययन के लिए अभिप्रेरणा का अभाव होना
३. अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रति विरोध उत्पन्न होना
४. 5 या 6 वर्ष तक क्लास 6 से 12 क्लास तक दूसरी और तीसरी भाषा के शिक्षण में बहुत ज्यादा व्यय होना
५. तीसरी भाषा की शिक्षक के लिए अपर्याप्त सुविधाएं होना एवं त्रिभाषा सूत्र में दोषपूर्ण योजनाएं बनाना
त्रिभाषा सूत्र के संदर्भ में विभिन्न आयोगों द्वारा सुझाव
त्रिभाषा सूत्र के संबंध में कोठारी आयोग द्वारा दिया गया सुझाव(1964-1966)
१. निम्न प्राथमिक स्तर पर एक भाषा मातृ भाषा अथवा प्रादेशिक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए
२. उच्च प्राथमिक स्तर पर दो भाषाएं मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा एवं संघ की राजभाषा अथवा सराज्य भाषा पढ़ाई जानी चाहिए
३. निम्न माध्यमिक स्तर पर कक्षा (8 से 10) तीन भाषाएं मातृ भाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा संघ की राज्य भाषा अथवा सह सहायक भाषा एवं क्षेत्रीय भाषा अथवा विदेशी भाषा पढ़ाई जानी चाहिए
४. शिक्षा का माध्यम सभी स्तरों पर क्षेत्रीय भाषाई ही होनी चाहिए
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त्रिभाषा सूत्र के संबंध में मुदालियर आयोग द्वारा दिया गया सुझाव(1952-1953)
1952 ईस्वी में डॉक्टर मुदालियर की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की गई। इस आयोग का संबंध माध्यमिक शिक्षा के साथ था। इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन 1953 ईस्वी में प्रस्तुत किया
मुदालियर आयोग ने माध्यम स्तर पर भाषा समस्या तथा शिक्षा के माध्यम पर विचार करते हुए निम्न सुझाव दिए हैं
१. मातृ भाषा या प्रदेशिक भाषा -शिक्षक माध्यम के रूप में, सामान्य रूप से माध्यमिक स्तर मातृ भाषा या प्रादेशिक भाषा को शिक्षक का माध्यम बनाना चाहिए। परंतु भाषाई अल्पसंख्यकों को केंद्र शिक्षा परामर्श बोर्ड के अनुसार विशेष सुविधाएं देनी चाहिए
२. मिडिल स्कूल स्तर पर दो भाषाएं आरंभ करना
मिडिल स्तर पर प्रत्येक बच्चों को कम से कम दो भाषा पढ़ानी चाहिए। अंग्रेजी और हिंदी निम्न स्तर माध्यमिक स्तर (कक्षा 5 से 8) के अंत पर आरंभ की जानी चाहिए। दोनों भाषाओं की शिक्षा एक ही वर्ष पर आरंभ नहीं करना चाहिए
३. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर या हाई सेकेंडरी स्कूल 10+2 तक 2 भाषाओं को अनिवार्य अध्ययन कर आना चाहिए
उच्च माध्यमिक स्तर पर क्लास (9, 10, 11, 12) तक 2 भाषाओं का अनिवार्य होना चाहिए उनमें से एक मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए
४. हिंदी का स्थान
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने सुझाव दीया है कि स्कूल में हिंदी का अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए
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विश्वविद्यालय आयोग द्वारा त्रिभाषा सूत्र के संबंध में दिया गया सुझाव (1948-49)
1949 ईस्वी में विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना की गई। इसके अध्यक्ष डॉक्टर राधाकृष्णन थे इसने पहली बार इस बात की जोरदार वकालत की कि उच्च स्तरीय शिक्षा का माध्यम छात्र की मातृभाषा हो परंतु कुछ समय तक अंग्रेजी चलती रहे। परंतु या लगातार चलता रहा
विश्वविद्यालय आयोग का सुझाव यह है कि त्रिभाषा सूत्र को लागू किया जाना चाहिए परंतु आयोग ने इसे उच्च स्तर पर लागू करने से विद्यार्थियों पर भाषा का बोझ अत्यधिक बढ़ जाएगा। जिसके परिणाम स्वरूप इनकी शक्तियां व्यर्थ होगी तथा उच्च शिक्षा में विषय का ज्ञान का स्तर भी गिर जाएगा। आयोग में उच्च स्तर पर भाषा के अध्ययन को अनिवार्य नहीं बनाया है पर 2 भाषाओं का अध्ययन के लिए सुझाव दिया है
त्रि-भाषा सूत्र की पृष्ठभूमि
भारत जैसी बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक विविधता वाले देश में भाषा नीति का निर्धारण एक जटिल कार्य रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को संगठित करने की प्रक्रिया शुरू हुई, तब भाषाओं की भूमिका को लेकर गहन विमर्श हुआ। इसी क्रम में ‘त्रि-भाषा सूत्र’ की अवधारणा सामने आई, जो देश में भाषाई संतुलन और शिक्षा के माध्यम में समावेशिता लाने का एक प्रयास था।
त्रि-भाषा सूत्र का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को तीन भाषाओं — हिंदी, अंग्रेज़ी और राज्य की क्षेत्रीय भाषा — का ज्ञान देना है। यह सूत्र केवल भाषा सीखने तक सीमित नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विविधता और संप्रेषण क्षमता को सशक्त बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया।
इस अवधारणा की जड़ें भारत की स्वतंत्रता के ठीक बाद तक जाती हैं। राधाकृष्णन आयोग (1948-49), जिसे विश्वविद्यालय शिक्षा के सुधार हेतु गठित किया गया था, ने ही पहली बार माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं में शिक्षा देने की सिफारिश की थी। आयोग ने सुझाव दिया कि विद्यार्थियों को प्रादेशिक भाषा, हिंदी, और अंग्रेजी — इन तीनों का अध्ययन करना चाहिए।
इसके कुछ वर्षों बाद, 1955 में डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग ने ‘द्विभाषा सूत्र’ का प्रस्ताव रखा। इस सूत्र के अनुसार, प्रादेशिक भाषा और हिंदी को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाए, जबकि अंग्रेजी या कोई अन्य भाषा एक वैकल्पिक विषय हो सकता है।
हालांकि कोठारी आयोग (1964-66) ने इस भाषा नीति को एक व्यापक और व्यावहारिक रूप देने के लिए त्रि-भाषा सूत्र की सिफारिश की, और अंततः 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे आधिकारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। लेकिन व्यवहार में इसे सभी राज्यों में एकरूपता के साथ लागू कर पाना कठिन रहा, और इसकी व्यापकता अभी भी विवाद और चुनौतियों से घिरी रही है।
त्रि-भाषा सूत्र की विशेषताएँ (Features of Three Language Formula)
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भाषाई संतुलन का प्रयास:
त्रि-भाषा सूत्र भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के बीच संतुलन स्थापित करने का एक प्रयास है, ताकि छात्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद में सक्षम बन सकें। -
तीन भाषाओं की पढ़ाई:
नीति के अनुसार छात्रों को तीन भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं —-
प्रादेशिक भाषा या मातृभाषा
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हिंदी (या गैर-हिंदी राज्यों में हिंदी)
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अंग्रेज़ी (या हिंदी भाषी राज्यों में कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा)
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राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा:
यह सूत्र भाषाई विविधता के बीच सेतु बनाकर राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का कार्य करता है। -
लचीली संरचना:
यह नीति राज्यों को अपनी भाषाई जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुसार लचीलापन भी प्रदान करती है। -
माध्यमिक स्तर पर लागू:
त्रि-भाषा सूत्र का प्रयोग मुख्यतः विद्यालयों के माध्यमिक स्तर पर किया जाता है।
त्रि-भाषा सूत्र के लाभ (Advantages of Three Language Formula)
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सांस्कृतिक समझ में वृद्धि
विभिन्न भाषाओं को सीखने से छात्रों में विभिन्न संस्कृतियों को समझने और सम्मान देने की भावना उत्पन्न होती है। -
रोज़गार के अवसरों में वृद्धि
अंग्रेज़ी और अन्य भारतीय भाषाओं का ज्ञान छात्रों को बहुभाषी बनाता है, जिससे वे सरकारी और निजी क्षेत्रों में बेहतर नौकरियों के योग्य बनते हैं। -
राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बल
अलग-अलग राज्यों में एक समान भाषा नीति लागू करने से विभिन्न क्षेत्रों में सामंजस्य और समझदारी बढ़ती है। -
वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार
अंग्रेजी भाषा का ज्ञान छात्रों को वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता के लिए तैयार करता है।
त्रि-भाषा सूत्र की चुनौतियाँ (Challenges of Three Language Formula)
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राज्य सरकारों के बीच असहमति
कुछ राज्य, विशेषकर दक्षिण भारत के राज्य, हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने का विरोध करते हैं। -
शिक्षकों और संसाधनों की कमी
कई स्कूलों में प्रशिक्षित भाषा शिक्षकों की कमी होती है, जिससे त्रि-भाषा सूत्र का समुचित क्रियान्वयन कठिन हो जाता है। -
विद्यार्थियों पर बोझ
तीन भाषाएँ पढ़ना कई छात्रों के लिए बोझिल हो सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ भाषा शिक्षा की सुविधाएं सीमित हैं। -
एकरूपता का अभाव
सभी राज्यों में त्रि-भाषा सूत्र को एक समान रूप से लागू नहीं किया गया है, जिससे इसका उद्देश्य कमजोर पड़ता है।
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में त्रि-भाषा सूत्र की प्रासंगिकता (Relevance of Three Language Formula in Contemporary Times)
वर्तमान समय में जब भारत डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत और वैश्विक मंचों पर प्रभावशाली उपस्थिति की ओर अग्रसर है, भाषा की भूमिका पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी त्रि-भाषा सूत्र को स्थान दिया गया है, जिसमें छात्रों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने के साथ-साथ अन्य भाषाओं को भी सीखने के अवसर उपलब्ध कराने की बात कही गई है।
डिजिटल शिक्षा, बहुभाषी सामग्री और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति बढ़ती रुचि ने त्रि-भाषा सूत्र को और अधिक प्रासंगिक बना दिया है। अब समय की माँग है कि इस नीति को व्यवहार में भी समान रूप से सभी राज्यों में लागू किया जाए और उसके लिए आवश्यक संसाधन, प्रशिक्षक व पाठ्यक्रम की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए।
त्रिभाषा सूत्र का महत्व
त्रिभाषा सूत्र का महत्व भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लागू किया गया था और बाद की नीतियों, जैसे कि नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) में भी इसे मान्यता दी गई है। इसका उद्देश्य विद्यार्थियों में भाषाई कौशल विकसित करना और भाषाओं के माध्यम से सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देना है।
1. राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा
भारत एक बहुभाषी देश है, जहां हर राज्य की अपनी भाषा, लिपि और सांस्कृतिक परंपरा है। ऐसे में त्रिभाषा सूत्र एक ऐसी नीति है, जो विभिन्न भाषाई क्षेत्रों के बीच आपसी संवाद और समझ को मजबूत करती है। जब एक राज्य का विद्यार्थी दूसरी भाषा सीखता है, तो वह उस राज्य की संस्कृति, सोच और जीवनशैली से परिचित होता है। यह परस्पर सम्मान और स्वीकार्यता की भावना को जन्म देता है, जो अंततः राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सुदृढ़ बनाती है। यह नीति भारत की “विविधता में एकता” की अवधारणा को जीवंत करती है।
2. भाषाई विविधता की रक्षा
भारत की भाषाई विविधता विश्व में अद्वितीय है। यहाँ सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं, जिनमें से कई अब लुप्त होने की कगार पर हैं। त्रिभाषा सूत्र विद्यार्थियों को विभिन्न भारतीय भाषाओं से जोड़कर न केवल इन भाषाओं को सीखने के अवसर प्रदान करता है, बल्कि उनके अस्तित्व को भी बचाने में सहायता करता है। जब कोई बच्चा किसी प्राचीन या अल्प प्रचलित भाषा को पढ़ता है, तो वह उस भाषा को जीवित रखने में योगदान देता है। इस प्रकार यह सूत्र भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का एक प्रभावी साधन है।
3. रोज़गार और वैश्विक अवसरों में वृद्धि
आज का युग वैश्वीकरण का है, जहाँ बहुभाषी होना एक कौशल और प्रतिस्पर्धात्मक लाभ माना जाता है। त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत छात्र यदि अंग्रेज़ी, हिंदी और एक अन्य क्षेत्रीय या विदेशी भाषा सीखते हैं, तो उनके लिए देश और विदेश दोनों स्तरों पर नौकरी के अधिक अवसर खुलते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, दूतावास, पर्यटन, अनुवाद, पत्रकारिता, आईटी और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में ऐसे उम्मीदवारों की मांग होती है जो कई भाषाओं में दक्ष हों। इससे विद्यार्थियों के करियर में विविध विकल्प पैदा होते हैं और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
4. सांस्कृतिक समझ में वृद्धि
भाषा किसी भी संस्कृति का मूल स्तंभ होती है। जब छात्र विभिन्न भाषाओं को सीखते हैं, तो वे केवल शब्दों और व्याकरण को नहीं अपनाते, बल्कि उस भाषा से जुड़ी कहानियों, गीतों, लोककथाओं, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं को भी आत्मसात करते हैं। यह अनुभव उन्हें भारत की सांस्कृतिक गहराई और विविधता से जोड़ता है। इससे न केवल सांस्कृतिक सहिष्णुता विकसित होती है, बल्कि विद्यार्थियों में यह समझ भी आती है कि विविधता किसी देश की कमजोरी नहीं बल्कि उसकी ताकत होती है।
5. बौद्धिक विकास (Cognitive Development)
विभिन्न भाषाओं का अध्ययन मस्तिष्क के कई हिस्सों को सक्रिय करता है। शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि जो बच्चे एक से अधिक भाषाएं सीखते हैं, वे बेहतर स्मृति, विश्लेषण क्षमता, समस्या सुलझाने की योग्यता और निर्णय लेने की क्षमता विकसित करते हैं। वे अधिक रचनात्मक होते हैं और उनका आत्म-विश्वास भी उच्च होता है। त्रिभाषा सूत्र के माध्यम से विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच मिलता है, जिससे वे न केवल बहुभाषी बनते हैं बल्कि बौद्धिक रूप से भी समृद्ध होते हैं।
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