शैशवावस्था में सामाजिक विकास Shaishav Avastha Mein Samajik Vikas
जन्म के समय शिशु सामाजिक प्राणी नहीं होता है। जैसे-जैसे बालक का शारीरिक और मानसिक विकास होता है वैसे वैसे उसका सामाजिक विकास भी होता जाता है। शिशु के समाजीकरण की प्रक्रिया दूसरे व्यक्तियों के साथ उसके संपर्क से प्रारंभ होती है शैशवावस्था में शिशु का सामाजिक विकास जिस क्रम से होता है उसे हरलॉक ने इस प्रकार से प्रस्तुत किया है-
१. पहला महीना शिशु में सामाजिक विकास :-
जन्म से लेकर लगभग 30 दिन की आयु तक शिशु का इंद्रिय एवं तंत्रिका तंत्र पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता, इसलिए वह किसी वस्तु या व्यक्ति को देखकर विशेष प्रतिक्रिया नहीं करता है। इस अवस्था में शिशु का व्यवहार अधिकतर प्रतिबिंबात्मक (reflexive) होता है। हालांकि, वह तीव्र प्रकाश और ध्वनियों के प्रति अवश्य प्रतिक्रिया करता है। जैसे ही किसी दिशा से तेज आवाज आती है या अचानक प्रकाश पड़ता है, शिशु आंखें बंद कर लेता है, हाथ-पैर हिलाता है या चौंक जाता है। इसके अतिरिक्त, शिशु में रोने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से देखी जाती है, जो उसकी भूख, असुविधा या किसी बाहरी उत्तेजना का संकेत हो सकती है। शिशु अपने नेत्रों को इधर-उधर घुमाने की प्रक्रिया भी करता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि उसकी दृष्टि क्षमता धीरे-धीरे सक्रिय हो रही है। यह प्रारंभिक प्रतिक्रियाएँ उसके संवेदनात्मक विकास की नींव होती हैं, जो आगे चलकर उसके संज्ञानात्मक और भावनात्मक विकास का आधार बनती हैं।
२. दूसरे महीना शिशु में सामाजिक विकास:-
शिशु के जीवन का दूसरा महीना उसके संवेदी और सामाजिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इस अवधि में शिशु धीरे-धीरे आवाजों को पहचानने लगता है। जब कोई व्यक्ति उससे बात करता है, ताली बजाता है या खिलौना दिखाता है, तो वह ध्वनि को सुनकर सिर घुमाने लगता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उसकी श्रवण क्षमता सक्रिय हो चुकी है। इसके अलावा, वह अब लोगों को देखकर मुस्कुराने भी लगता है, जो उसके भावनात्मक और सामाजिक विकास का पहला संकेत है। यह मुस्कान प्रतिक्रिया के रूप में होती है और यह इस बात का प्रमाण है कि वह अब अपने आसपास के चेहरों और ध्वनियों के प्रति सजग होने लगा है। दूसरे महीने में शिशु का यह व्यवहार आगे चलकर उसके भाषाई, संज्ञानात्मक और भावनात्मक विकास की मजबूत नींव तैयार करता है।
३. तीसरा महीना शिशु में सामाजिक विकास :-
जब शिशु सीमित उम्र लगभग 3 महीने का हो जाता है, तो वह धीरे-धीरे अपनी माँ और परिवार के सदस्यों को पहचानने लगता है। यह पहचान उसकी इंद्रियों के समन्वय और सामाजिक जुड़ाव का महत्वपूर्ण संकेत है। जब कोई व्यक्ति शिशु को देखकर बात करता है, ताली बजाता है या उसका नाम पुकारता है, तो वह रोना छोड़कर चुप हो जाता है और उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगता है। यह व्यवहार दर्शाता है कि शिशु अब अपने आसपास के प्रियजनों की आवाज़ और चेहरे को अलग-अलग पहचानने में सक्षम हो रहा है। यह प्रारंभिक सामाजिक प्रतिक्रिया न केवल उसके भावनात्मक विकास का प्रतीक है, बल्कि आगे चलकर बनने वाले संवेदनात्मक संबंधों की नींव भी रखती है।
४. चौथा महीना शिशु में सामाजिक विकास :-
जब शिशु 4 महीने का हो जाता है, तो उसमें सामाजिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाएं तेजी से विकसित होने लगती हैं। वह अब अपने पास आने वाले व्यक्ति को देखकर हँसता है, मुस्कुराता है और उसके प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देता है। यदि कोई व्यक्ति उसके साथ खेलता है या बातचीत करता है, तो शिशु भी उत्साहपूर्वक खेल में शामिल होता है। लेकिन जैसे ही वह अकेला रह जाता है, तो वह असहज महसूस करता है और रोने लगता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह अब सामाजिक जुड़ाव की आवश्यकता को समझने लगा है। यह व्यवहार शिशु के भीतर विकसित हो रहे भावनात्मक लगाव और सुरक्षा की भावना का संकेत देता है, जो आगे चलकर उसके व्यक्तित्व विकास का महत्वपूर्ण आधार बनता है।
५. पांचवा महीना शिशु में सामाजिक विकास:-
शिशु की भावनात्मक समझ और प्रतिक्रिया
जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है, उसकी भावनात्मक समझ भी विकसित होने लगती है। वह अब प्रेम और क्रोध में अंतर समझने लगता है। जब कोई व्यक्ति हंसता है या प्रसन्न होता है, तो शिशु भी मुस्कुराता है और प्रसन्नता जाहिर करता है। वहीं, जब कोई नाराज होता है या उसे डाँटता है, तो वह सहम जाता है और अक्सर रोने लगता है। यह व्यवहार इस बात का संकेत है कि शिशु अब दूसरों की भावनात्मक अभिव्यक्तियों को पहचान कर, उनके अनुसार प्रतिक्रिया देना सीख रहा है। यह विकास उसकी सामाजिक-बौद्धिक वृद्धि में एक महत्वपूर्ण चरण होता है, जो आगे चलकर उसके भावनात्मक संतुलन और संबंधों की समझ का आधार बनता है।
६. आठवां महीना शिशु में सामाजिक विकास :-
आठवें महीने में शिशु की अनुकरण करने की क्षमता तेज़ी से विकसित होती है। इस अवस्था में वह आसपास के लोगों द्वारा बोले जाने वाले शब्दों और उनके हाव-भाव को ध्यानपूर्वक देखने और उनकी नकल करने की कोशिश करता है। वह माता-पिता या देखभाल करने वालों के चेहरे के भाव, मुस्कान, हाथ हिलाने, ताली बजाने जैसे क्रियाकलापों का अनुकरण करता है। इसके साथ ही, वह कुछ सरल शब्दों या ध्वनियों को दोहराने की कोशिश करता है, जैसे “मामा”, “पापा” आदि। यह विकास न केवल उसकी भाषा और संप्रेषण कौशल को बढ़ावा देता है, बल्कि उसके सामाजिक और बौद्धिक विकास की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होता है।
७. 1 वर्ष शिशु में सामाजिक विकास:
जब शिशु एक वर्ष का हो जाता है, तो उसमें सही और गलत की प्रारंभिक समझ विकसित होने लगती है। इस उम्र में बालक या बालिका अक्सर उन कार्यों को करने से परहेज करता है जिन्हें बार-बार मना किया गया हो। यदि किसी कार्य को माता-पिता या देखभाल करने वाले ने मना किया है, तो वह शिशु उसे याद रखता है और कई बार उसे करने से रुकता है। हालांकि यह समझ अभी पूरी तरह विकसित नहीं होती, लेकिन यह बालक के अनुशासन और सामाजिक व्यवहार के विकास की एक महत्वपूर्ण शुरुआत होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिशु अब आसपास के वातावरण और वयस्कों के निर्देशों को समझने और उन पर प्रतिक्रिया देने में सक्षम हो रहा है।
८. सवा वर्ष शिशु में सामाजिक विकास:-
जब शिशु सवा वर्ष (करीब 15 महीने) का हो जाता है, तो उसमें बड़ों के साथ रहने की चाह और उनके व्यवहार का अनुकरण (imitate) करने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है। वह बड़ों की गतिविधियों को ध्यान से देखता है और उन्हें दोहराने का प्रयास करता है। जैसे कि कोई वयस्क मोबाइल पर बात कर रहा हो, झाड़ू लगा रहा हो, ताली बजा रहा हो या कुछ खा रहा हो—तो शिशु भी वैसा ही करने की कोशिश करता है। यह अनुकरणशीलता उसकी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा होती है, जिससे उसका सामाजिक, मानसिक और भाषायी विकास तेज़ी से होने लगता है। इस अवस्था में परिवार का वातावरण और बड़ों का व्यवहार शिशु के व्यक्तित्व निर्माण में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
९. दो वर्ष शिशु में सामाजिक विकास :-
जब शिशु दो वर्ष का हो जाता है, तो वह केवल देखने या अनुकरण तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वह परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है। इस उम्र में वह बड़ों के साथ मिलकर छोटे-मोटे घरेलू कार्यों में भाग लेने लगता है, जैसे झाड़ू पकड़ना, कपड़े उठाना, खिलौनों को व्यवस्थित करना या पानी की बोतल लाना आदि। यह सहभागिता केवल खेल का हिस्सा नहीं होती, बल्कि यह उसके स्वतंत्रता के विकास, ज़िम्मेदारी के भाव और सामाजिक व्यवहार को प्रोत्साहित करती है। इस अवस्था में बच्चों को प्रोत्साहन और सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है, तो वे आत्मविश्वासी बनते हैं और उनमें सहयोग तथा कर्तव्यबोध की भावना विकसित होने लगती है।
१०. दो और तीन वर्ष के बीच के शिशु में सामाजिक विकास :-
दो से तीन वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते शिशु का सामाजिक विकास तीव्र गति से होने लगता है। इस अवस्था में उसकी रुचियाँ केवल खिलौनों तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वह अपने आस-पास खेलने वाले साथियों में दिलचस्पी लेने लगता है। वह बच्चों के साथ खेलने की पहल करता है, उन्हें बुलाता है और उनके साथ समय बिताने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में वह सामाजिक संबंधों की स्थापना करना सीखता है। इस उम्र में शिशु के व्यवहार में उल्लेखनीय परिवर्तन देखा जाता है—जहाँ पहले वह आत्म-केंद्रित होता है, वहीं अब उसका व्यवहार सामाजिक होता जाता है। यह समय उसके व्यक्तित्व में सामाजिकरण की शुरुआत का होता है, जहाँ वह सहयोग, साझा करना, और दूसरों की भावनाओं को समझना प्रारंभ करता है।
११. चौथा और पांचवां वर्ष के शिशु में सामाजिक विकास :-
चौथे और पांचवे वर्ष में शिशु का विकास एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुँचता है, जब वह नर्सरी विद्यालय में प्रवेश करता है। इस उम्र में वह पहली बार नए सामाजिक संसार में कदम रखता है, जहाँ उसे नए दोस्त, शिक्षक, और अन्य बच्चे मिलते हैं। विद्यालय में वह सामाजिक कौशल विकसित करने लगता है, जैसे कि साझा करना, सहयोग करना, और समूह में काम करना। इस चरण में शिशु नए सामाजिक संबंध स्थापित करता है, जहाँ वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है और दूसरों के साथ अपनी भावनाओं और विचारों को साझा करता है। विद्यालय का वातावरण उसके आत्मविश्वास और समाज में स्थान बनाने की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है। यह समय शिशु के जीवन में सामाजिकरण की एक अहम कड़ी होती है, जो उसे आने वाले वर्षों में अच्छे सामाजिक व्यवहार और रिश्तों को समझने में मदद करता है।
१२. पांचवा वर्ष के शिशु में सामाजिक विकास :-
पाँचवे वर्ष में शिशु का सामाजिक व्यवहार और भी परिपक्व होता है। इस उम्र में वह दूसरे बच्चों के समूह में रहना पसंद करता है और उनके साथ लेन-देन करना सीख जाता है। उसे यह समझ में आने लगता है कि खेल और अन्य गतिविधियाँ साझा करने से अधिक मज़ा आता है। वह अपने खिलौनों और वस्तुओं में साझेदारी करना सीखता है, जिससे उसे सामूहिक भावना और समूह में तालमेल बैठाने की समझ मिलती है। इस चरण में, शिशु अपनी सामाजिक पहचान को बढ़ावा देने के लिए, जिस समूह का सदस्य होता है, वह उसी समूह के अनुरूप व्यवहार करने की चेष्टा करता है। यह समय शिशु के लिए सामाजिक नियमों और मूल्यों को समझने का होता है, जिससे वह दूसरों के साथ अच्छे रिश्ते बना पाता है और अपने आप को सामाजिक जीवन में बेहतर तरीके से ढालता है।
१३. पांचवा व छठा वर्ष के शिशु में सामाजिक विकास:-
छठे वर्ष तक आते-आते शिशु में नैतिक भावना का विकास होना शुरू हो जाता है। इस उम्र में वह सही और गलत के बीच अंतर समझने की कोशिश करता है, और उसे यह एहसास होने लगता है कि उसके कार्यों का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है। इस समय में शिशु के सामाजिक और नैतिक मूल्य मजबूत होते हैं, जैसे कि ईमानदारी, सहयोग, और दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना। वह उन मान्यताओं को समझने लगता है जो समाज में स्वीकार की जाती हैं और व्यवहार में उन नियमों का पालन करने की कोशिश करता है।
इस प्रकार शैशवावस्था में शिशु का सामाजिक विकास अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। प्रथम माह से लेकर छठे वर्ष तक का समय बच्चों के जीवन में बहुत सारे परिवर्तन लेकर आता है। इस अवधि में शिशु न केवल शारीरिक और मानसिक विकास की ओर बढ़ता है, बल्कि वह सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी परिपक्व होता है। यह समय उसे नई दुनिया और समाज के साथ परिचित कराता है, और उसे एक नया जीवन प्रदान करता है। इस उम्र में शिशु के सामाजिक, मानसिक और भावनात्मक पहलुओं का बढ़ना और विकसित होना उसकी आगे की जिंदगी के लिए आधार बनता है।
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