रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय
रविंद्र नाथ का जन्म 7 मई सन 1861 ईस्वी को बंगाल के एक शिक्षित धनी तथा सम्मानित परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर था। देवेंद्र नाथ अपने पुत्र टैगोर को संस्कृत शिक्षा के साथ-साथ भारतीय दर्शन एवं नक्षत्र विज्ञान (ज्योतिष शिक्षा) की शिक्षा दिलाई।
सन् 1877 ईस्वी में रविंद्रनाथ टैगोर को कानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा गया परंतु वहां उन्हें संतुष्टि नहीं हुई और वे बिना कोई शिक्षा की डिग्री लिए हुए वापस भारत लौट आए। रविंद्र नाथ टैगोर की शिक्षा अधिकतर गृह शिक्षण तथा स्वाध्याय के द्वारा घर पर ही हुई।
उन्होंने बाल्यावस्था से ही बंगाली पत्रिकाओं में लेखन लिखते थे तथा लोगों के बीच लेख देना भी प्रारंभ कर दिये थे। उन्होंने प्रशंसनीय कविताएं, उपन्यास,नाटक इत्यादि लिखें। इससे वे केवल एक सुप्रसिद्ध कवि उपन्यासकार नाटककार चित्रकार तथा दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उसके बाद उन्हें ऋषि की संज्ञा से विभूषित करके गुरु देव कहा जाने लगा। उनकी प्रथम रचना गीतांजली जिसमें उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया। उसी वर्ष (1913 ई.) उनको कलकत्ता विश्वविद्यालय में ‘डिलीट’ की उपाधि से विभूषित किया। 1915 ई. में भारत सरकार ने भी ‘टैगोर नाइट’ की उपाधि प्राप्त की परन्तु उन्होंने इस उपाधि को ‘जालियांवाला बाग’ नामक हत्याकांड के क्रोध में लौटा दिये। वे 22 सितम्बर 1921 को विश्व भारती नामक प्रसिद्ध शैक्षिक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने 20 वर्ष तक अथक प्रयास किया। अंत में उनकी जीवन लीला सन् 1941 में समाप्त हो गई।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार/रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन
रवींद्रनाथ टैगोर का मानना था कि प्रकृति मानव तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परस्पर मेल एवं प्रेम होना चाहिए।
उन्होंने सच्ची शिक्षा के द्वारा वर्तमान के सभी वस्तुओं में मेल और प्रेम की भावना विकसित करना चाहते थे। टैगोर का विश्वास था कि शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतंत्र वातावरण मिलना परम आवश्यक है।
रूसो की भांति टैगोर भी प्रकृति को बालक की शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे। उन्होंने (टैगोर) लिखा है “प्रकृति के पश्चात बालक को समाजिक व्यवहार की धारा के संपर्क में आना चाहिए।”
टैगोर के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन करते हुए डॉक्टर एस.बी मुखर्जी ने लिखा है टैगोर आधुनिक भारत में शैक्षिक पुनरुत्थान के सबसे महान पैगंबर थे। उन्होंने अपने देश के सामने शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने अपनी शिक्षा संस्थाओं में शैक्षिक प्रयोग किए जिन्होंने उनको आदर्श का सजीव प्रतीक बना दिया।
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टैगोर के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत
टैगोर के शिक्षा दर्शन के सिद्धांत इस प्रकार है:-
१. बालक की शिक्षा उसकी मातृ भाषा के माध्यम से होनी चाहिए।
२. शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
३. बालक की रचनात्मक प्रवृत्तियों के विकास के लिए आत्म प्रकाशन का अवसर दिया जाना चाहिए।
४. बालक की शिक्षा नागरो से दूर प्रकृति की गोद में होनी चाहिए।
५. शिक्षा द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्य पूर्ण विकास होनी चाहिए।
६. बालक को प्रकृति वातावरण में स्वतंत्रता पूर्वक स्वयं करके सीखने का अवसर मिलना चाहिए।
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टैगोर के अनुसार शिक्षा की धारणा
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा की धारणा शरीर तथा आत्मा से है, जो प्राकृती की गोद में स्वस्थ एवं प्रशांत प्रसन्नचित होकर विकास करता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ-
गुरुदेव भारत में एक ऐसी शिक्षा चाहते थे जो वातावरण के निकटतम सम्पर्क में दी जाये। वह समझते थे कि शिक्षा का उद्देश्य सम्पूर्ण प्रकृति तथा सम्पूर्ण जीवन से व्यक्ति में एकत्व की भावना का विकास है। सुसंयोजित व्यक्ति के लिए वह एकत्व की भावना ही सबसे महत्त्वपूर्ण समझते थे । वह चाहते थे कि शिक्षा द्वारा विद्यार्थी में यह क्षमता विकसित हो जाये कि वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और समाज के साथ मनुष्यता का व्यवहार कर सके।
टैगोर के शिक्षा का उद्देश्य
१. शारीरिक विकास का उद्देश्य
२. मानसिक विकास का उद्देश्य
३. शिक्षा तथा जीवन में सामंजस्य स्थापित करना
४. आध्यात्मिक संस्कृति का विकास करना
५. पूर्व मानव के रूप में विकसित करना
६. सत्य एवं एकता कायम रखना।
टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम
टैगोर के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य का पूर्ण विकास करना। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के अनेक विषयों को शामिल किया है।
विषय: इतिहास, प्रकृति अध्ययन, भूगोल, साहित्य इत्यादि।
क्रियाएं: नाटक, भ्रमण, बागवानी, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, ड्राइंग, मौलिक रचना इत्यादि।
अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाएं: खेलकूद, समाज सेवा, छात्र स्वशासन इत्यादि।
टैगोर ने पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने का परामर्श दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिए कि बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। टैगोर ने किसी निश्चित पाठ्यक्रम की योजना नहीं बनायी। उन्होंने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में सामान्य विचार यत्र-तत्र प्रस्तुत हैं और उन्हीं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे सांस्कृतिक विषयों को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान देते थे। विश्वभारती में इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती है. साथ ही अभिनय, क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मौलिक रचना, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा का विशेष प्रबन्ध है। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा निर्मित शांतिनिकेतन और विश्व भारती के पाठ्यक्रम को देखा जाए तो वह विषय केंद्रित न होकर बाल केंद्रित है वहां विभिन्न प्रकार के क्रियाएं देखने को मिलते हैं जैसे प्रातः कालीन प्रार्थना, सरस्वती यात्राएं, गायन, नृत्य, ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य, छात्रों का स्वशासन, खेलकूद, समाज सेवा आदि को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है इसलिए कहा जा सकता है कि विश्व भारती के पाठ्यक्रम अनुभव केंद्रित पाठ्यक्रम है और इसका श्रेय रवीन्द्र नाथ टैगोर को जाता है।
टैगोर की शिक्षण विधि
टैगोर ने अपनी शिक्षण विधि में निम्नलिखित सिद्धांत इस प्रकार दिए हैं:-
१. शिक्षण विधि को बालक की स्वाभाविक, रूचियों, और आवेगो पर आधारित होना चाहिए। शिक्षण विधि में वाद विवाद और प्रश्नोत्तर का प्रयोग करना चाहिए।
२. शिक्षण विधि में नृत्य अभिनय दस्तकारी को स्थान मिलनी चाहिए।
३. शिक्षण विधि में बालक के अनुभव सौर इंद्रियों का प्रयोग करनी चाहिए।
टैगोर ने शिक्षण विधि को सर्वोत्तम विधि बताते हुए लिखा है “भ्रमण के समय शिक्षण सर्वोत्तम विधि है।”
शिक्षण-विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्रिया-सिद्धान्त है। टैगोर शरीर और मस्तिष्क की शिक्षा के लिए क्रिया को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार बालक को किसी हस्तकला में अवश्य प्रशिक्षित किया जाय। वे पेड़ पर चढ़ने, कूदने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने, फल तोड़ने, हँसने, चिल्लाने, ताली बजाने, अभिनय करने को शिक्षण की आवश्यक प्रविधि या युक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वे विभिन्न विषयों – जीव विज्ञान, विज्ञान, खगोल विद्या, भूगर्भ विद्या आदि की शिक्षा प्राकृतिक पर्यावरण में देना चाहते हैं, जिसमें बालक स्वानुभव, रुचि तथा करके सीख सकता है। इस प्रकार शिक्षण की वे मनोवैज्ञानिक विधियों का समर्थन करते थे।
टैगोर के अनुसार शिक्षक का स्थान:
टैगोर का मानना था कि मनुष्य को केवल मनुष्य ही पढ़ा सकता है। उन्होंने अपनी शिक्षा योजना में शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान दिए तथा वे शिक्षक को मुख्य आधार मानते थे:-
१. शिक्षक बालक की पवित्रता में विश्वास करते हुए उसके साथ प्रेम तथा सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें।
२. शिक्षक पुस्तकीय ज्ञान पर ध्यान कम दे तथा ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें क्रियाशील रहते हुए बालक अपने नीति अनुभव द्वारा स्वयं सीखता रहें।
३. शिक्षक बालक को रचनात्मक कार्य करने के लिए उत्तेजित करते रहें।
शानदार