रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार/रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय
रविंद्र नाथ का जन्म 7 मई सन 1861 ईस्वी को बंगाल के एक शिक्षित धनी तथा सम्मानित परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर था। देवेंद्र नाथ अपने पुत्र टैगोर को संस्कृत शिक्षा के साथ-साथ भारतीय दर्शन एवं नक्षत्र विज्ञान (ज्योतिष शिक्षा) की शिक्षा दिलाई।
सन् 1877 ईस्वी में रविंद्रनाथ टैगोर को कानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा गया परंतु वहां उन्हें संतुष्टि नहीं हुई और वे बिना कोई शिक्षा की डिग्री लिए हुए वापस भारत लौट आए। रविंद्र नाथ टैगोर की शिक्षा अधिकतर गृह शिक्षण तथा स्वाध्याय के द्वारा घर पर ही हुई।
उन्होंने बाल्यावस्था से ही बंगाली पत्रिकाओं में लेखन लिखते थे तथा लोगों के बीच लेख देना भी प्रारंभ कर दिये थे। उन्होंने प्रशंसनीय कविताएं, उपन्यास,नाटक इत्यादि लिखें। इससे वे केवल एक सुप्रसिद्ध कवि उपन्यासकार नाटककार चित्रकार तथा दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उसके बाद उन्हें ऋषि की संज्ञा से विभूषित करके गुरु देव कहा जाने लगा। उनकी प्रथम रचना गीतांजली जिसमें उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया। उसी वर्ष (1913 ई.) उनको कलकत्ता विश्वविद्यालय में ‘डिलीट’ की उपाधि से विभूषित किया। 1915 ई. में भारत सरकार ने भी ‘टैगोर नाइट’ की उपाधि प्राप्त की परन्तु उन्होंने इस उपाधि को ‘जालियांवाला बाग’ नामक हत्याकांड के क्रोध में लौटा दिये। वे 22 सितम्बर 1921 को विश्व भारती नामक प्रसिद्ध शैक्षिक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने 20 वर्ष तक अथक प्रयास किया। अंत में उनकी जीवन लीला सन् 1941 में समाप्त हो गई।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार, रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन
रवींद्रनाथ टैगोर का मानना था कि प्रकृति मानव तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परस्पर मेल एवं प्रेम होना चाहिए।
उन्होंने सच्ची शिक्षा के द्वारा वर्तमान के सभी वस्तुओं में मेल और प्रेम की भावना विकसित करना चाहते थे। टैगोर का विश्वास था कि शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतंत्र वातावरण मिलना परम आवश्यक है।
रूसो की भांति टैगोर भी प्रकृति को बालक की शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे। उन्होंने (टैगोर) लिखा है “प्रकृति के पश्चात बालक को समाजिक व्यवहार की धारा के संपर्क में आना चाहिए।”
टैगोर के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन करते हुए डॉक्टर एस.बी मुखर्जी ने लिखा है टैगोर आधुनिक भारत में शैक्षिक पुनरुत्थान के सबसे महान पैगंबर थे। उन्होंने अपने देश के सामने शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे तथा उन्होंने अपनी शिक्षा संस्थाओं में शैक्षिक प्रयोग किए जिन्होंने उनको आदर्श का सजीव प्रतीक बना दिया।
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टैगोर के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत
रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन बालक के स्वतंत्र विकास, रचनात्मकता, प्रकृति से जुड़ाव और मातृभाषा में शिक्षा पर केंद्रित है। उनके शिक्षा दर्शन के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
- मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा
टैगोर का मानना था कि बालक को अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि यही भाषा उसकी भावनाओं, विचारों और रचनात्मक अभिव्यक्तियों को सही दिशा दे सकती है। विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा बालक के संपूर्ण मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न कर सकती है। - शिक्षा में स्वतंत्रता का महत्व
टैगोर के अनुसार, शिक्षा प्राप्त करने की प्रक्रिया में बालक को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जब बालक स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र होकर सीखता है, तो वह अपनी प्रतिभा को बेहतर तरीके से विकसित कर सकता है। - रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास
टैगोर शिक्षा को केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं मानते थे, बल्कि वे इसे एक रचनात्मक प्रक्रिया मानते थे। उन्होंने संगीत, नाटक, कला, चित्रकला और साहित्य को शिक्षा का अभिन्न अंग बताया, जिससे बालक को आत्म प्रकाशन (Self-Expression) का अवसर मिलता है। - प्रकृति की गोद में शिक्षा
टैगोर शिक्षा को प्राकृतिक वातावरण में देने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि शिक्षा केवल कक्षा के चार दीवारों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि प्राकृतिक परिवेश में बालक का संपूर्ण विकास होना चाहिए। इसी उद्देश्य से उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की, जहाँ शिक्षा खुले वातावरण में दी जाती थी। - समस्त शक्तियों का संतुलित विकास
टैगोर का शिक्षा दर्शन शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों के सामंजस्यपूर्ण विकास पर बल देता है। वे चाहते थे कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न रहे, बल्कि बालक के चारित्रिक और नैतिक विकास में भी सहायक बने। - अनुभव आधारित और प्रयोगात्मक शिक्षा
टैगोर के अनुसार, बालक को प्रयोग करके स्वयं सीखने का अवसर मिलना चाहिए। उनके अनुसार, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो अनुभवजन्य (Experiential Learning) और व्यावहारिक (Practical) हो, जिससे बालक स्वतंत्र रूप से सोचने और निर्णय लेने में सक्षम हो सके।
टैगोर का शिक्षा दर्शन मुक्त, प्राकृतिक और रचनात्मक शिक्षा का समर्थन करता है। उनके विचारों के अनुसार, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालक की स्वतंत्रता, सृजनात्मकता और संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को प्रोत्साहित करे।
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टैगोर के अनुसार शिक्षा की धारणा
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, शिक्षा केवल बौद्धिक विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि यह शरीर, आत्मा और प्रकृति से जुड़ी एक समग्र प्रक्रिया है। उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना है, जिसमें शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक पहलू शामिल हैं।
- शिक्षा और आत्मा का संबंध
टैगोर के अनुसार, शिक्षा केवल ज्ञान अर्जन का साधन नहीं है, बल्कि यह आत्मा को प्रकाशित करने की प्रक्रिया है। उन्होंने शिक्षा को एक मानवीय, नैतिक और आध्यात्मिक अन्वेषण के रूप में देखा, जिससे व्यक्ति अपने भीतर छिपी संभावनाओं और संवेदनशीलता को पहचान सके। - प्रकृति के बीच शिक्षा
टैगोर का मानना था कि शिक्षा का वास्तविक विकास प्राकृतिक परिवेश में ही संभव है। वे चाहते थे कि बालक खुले वातावरण में, वृक्षों की छाया में, चिड़ियों की चहचहाहट के बीच, स्वतंत्र होकर शिक्षा ग्रहण करें। इसी विचार को साकार करने के लिए उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की, जहाँ औपचारिक कक्षाओं की तुलना में प्राकृतिक वातावरण में सीखने पर अधिक जोर दिया गया। - शिक्षा और आनंद
टैगोर के अनुसार, शिक्षा को आनंददायक होना चाहिए। वह चाहते थे कि शिक्षा एक प्रेरणादायक और उत्साहवर्धक प्रक्रिया हो, न कि एक बोझिल और जबरदस्ती थोपी गई प्रणाली। उनका कहना था कि जब कोई व्यक्ति आनंद और रुचि के साथ सीखता है, तो वह गहरे और स्थायी रूप से ज्ञान अर्जित करता है। - शिक्षा का उद्देश्य
टैगोर के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। बल्कि, शिक्षा को व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन, आत्म-अनुशासन, सहानुभूति, नैतिकता और समाज सेवा के लिए प्रेरित करना चाहिए।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा की धारणा प्राकृतिक, स्वतंत्र और आत्मविकास आधारित थी। वे शिक्षा को रचनात्मकता, आत्म-अन्वेषण, प्रकृति से जुड़ाव और समग्र विकास का साधन मानते थे। उनकी यह धारणा आज भी शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत प्रासंगिक बनी हुई है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ-
गुरुदेव भारत में एक ऐसी शिक्षा चाहते थे जो वातावरण के निकटतम सम्पर्क में दी जाये। वह समझते थे कि शिक्षा का उद्देश्य सम्पूर्ण प्रकृति तथा सम्पूर्ण जीवन से व्यक्ति में एकत्व की भावना का विकास है। सुसंयोजित व्यक्ति के लिए वह एकत्व की भावना ही सबसे महत्त्वपूर्ण समझते थे । वह चाहते थे कि शिक्षा द्वारा विद्यार्थी में यह क्षमता विकसित हो जाये कि वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और समाज के साथ मनुष्यता का व्यवहार कर सके।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा की परिभाषा
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “शिक्षा वह प्रक्रिया है जो हमें हमारे चारों ओर की दुनिया से जुड़ने में मदद करती है और जीवन के हर पहलू में पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में ले जाती है।”
उन्होंने शिक्षा को केवल ज्ञान अर्जन का साधन नहीं, बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया माना। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल सूचनाओं को याद रखना नहीं, बल्कि सोचने, समझने और रचनात्मक रूप से व्यक्त करने की क्षमता विकसित करना है।
टैगोर की शिक्षा परिभाषा के मुख्य तत्व:
- प्राकृतिक और अनुभवात्मक शिक्षा: शिक्षा को पुस्तक-आधारित न बनाकर अनुभव और प्रकृति से जोड़ना चाहिए।
- रचनात्मकता का विकास: शिक्षा का कार्य सिर्फ जानकारी देना नहीं, बल्कि छात्रों की रचनात्मक क्षमताओं को बढ़ाना है।
- स्वतंत्रता और आत्म-अन्वेषण: शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र रूप से सोचने में सक्षम बनाए।
- संपूर्ण विकास: शिक्षा केवल मानसिक नहीं, बल्कि शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास का भी माध्यम होनी चाहिए।
टैगोर की शिक्षा प्रणाली स्वतंत्रता, आनंद, रचनात्मकता और प्रकृति से जुड़ाव पर आधारित थी, जिसका आदर्श रूप उन्होंने शांति निकेतन में प्रस्तुत किया।
टैगोर के शिक्षा का उद्देश्य
१. शारीरिक विकास का उद्देश्य
२. मानसिक विकास का उद्देश्य
३. शिक्षा तथा जीवन में सामंजस्य स्थापित करना
४. आध्यात्मिक संस्कृति का विकास करना
५. पूर्व मानव के रूप में विकसित करना
६. सत्य एवं एकता कायम रखना।
रबीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार हैं:
१. शारीरिक विकास का उद्देश्य:
टैगोर शारीरिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण मानते थे और उनके शिक्षा के माध्यम से छात्रों के शारीरिक विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता था। उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा उनके शारीरिक विकास को समर्पित थी जिससे उनकी शारीरिक क्षमता, स्थायित्व और स्वस्थता का विकास हो सके।
२. मानसिक विकास का उद्देश्य:
टैगोर के शिक्षा के दूसरे महत्वपूर्ण उद्देश्य में से एक मानसिक विकास को सम्मिलित करना था। उन्हें छात्रों के मानसिक विकास को प्राथमिकता दी जाती थी। उनकी शिक्षा के माध्यम से छात्रों के मन को समृद्ध, स्वतंत्र और सक्रिय बनाने का प्रयास किया जाता था। यह उनका मानना था कि एक स्वस्थ मन परिश्रम कर सकता है, सहनशीलता का सामर्थ्य रखता है, और जीवन के मुश्किलाओं का सामना कर सकता है। उन्होंने छात्रों को विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं और बुद्धिमत्ता के संग्रह का विकास करने के लिए प्रोत्साहित किया।
३. शिक्षा तथा जीवन में सामंजस्य स्थापित करना:
टैगोर के शिक्षा के उद्देश्यों में से एक शिक्षा और जीवन में सामंजस्य स्थापित करना भी था। उनका मानना था कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को सामाजिक और मानसिक रूप से एकजुट करना है। उनकी शिक्षा के माध्यम से छात्रों को आपसी सहयोग, समझदारी और बृहदार्थी सोच की शक्ति का विकास होता था। इससे छात्रों में दया, संवेदनशीलता और सामाजिक संबंधों की गहराई विकसित होती थी, जो उनके जीवन में सामंजस्य की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करता था।
४. आध्यात्मिक संस्कृति का विकास करना:
टैगोर के शिक्षा के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य आध्यात्मिक संस्कृति का विकास करना भी था। उनको आध्यात्मिकता और धार्मिकता का महत्व प्राथमिकता माना जाता था। उनके अनुसार, शिक्षा छात्रों को आध्यात्मिक संस्कृति के साथ जोड़ने, उनकी आंतरिक विकास को प्रोत्साहित करने और उन्हें उच्चतम आदर्शों और मानवीयता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का उद्देश्य था। उनकी शिक्षा में ध्यान, ध्यान और मनोमयता के विकास पर बल दिया जाता था ताकि छात्र अपने आंतरिक स्वरूप को समझ सकें और आध्यात्मिक अनुभवों के माध्यम से ऊंचाईयों की ओर प्रगति कर सकें।
५. पूर्व मानव के रूप में विकसित करना:
टैगोर विद्यार्थियों को सिर्फ ज्ञान के साथ ही अच्छे मानवीय गुणों का विकास करने की महत्वता देते थे। उनके शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी को पूर्णता और उन्नति की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता था।
६. सत्य एवं एकता कायम रखना:
टैगोर के शिक्षा के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य सत्य और एकता को कायम रखना था। उन्हें यह मान्यता थी कि सत्य और एकता शिक्षा के मूल तत्व हैं और छात्रों को इनके महत्व को समझना चाहिए। उनकी शिक्षा के माध्यम से छात्रों को सत्य की प्रतिष्ठा करने, झूठ से दूर रहने, विचारों और कर्मों में एकता बनाए रखने का प्रयास किया जाता था। छात्रों को सामाजिक और नैतिक मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था ताकि वे सच्चाई के प्रति संवेदनशील और समर्पित बन सकें और समुदाय में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दे सकें।
टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम
टैगोर के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य का पूर्ण विकास करना। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के अनेक विषयों को शामिल किया है।
विषय: इतिहास, प्रकृति अध्ययन, भूगोल, साहित्य इत्यादि।
क्रियाएं: नाटक, भ्रमण, बागवानी, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, ड्राइंग, मौलिक रचना इत्यादि।
अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाएं: खेलकूद, समाज सेवा, छात्र स्वशासन इत्यादि।
टैगोर ने पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने का परामर्श दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिए कि बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। टैगोर ने किसी निश्चित पाठ्यक्रम की योजना नहीं बनायी। उन्होंने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में सामान्य विचार यत्र-तत्र प्रस्तुत हैं और उन्हीं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे सांस्कृतिक विषयों को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान देते थे। विश्वभारती में इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती है. साथ ही अभिनय, क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मौलिक रचना, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा का विशेष प्रबन्ध है। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा निर्मित शांतिनिकेतन और विश्व भारती के पाठ्यक्रम को देखा जाए तो वह विषय केंद्रित न होकर बाल केंद्रित है वहां विभिन्न प्रकार के क्रियाएं देखने को मिलते हैं जैसे प्रातः कालीन प्रार्थना, सरस्वती यात्राएं, गायन, नृत्य, ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य, छात्रों का स्वशासन, खेलकूद, समाज सेवा आदि को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है इसलिए कहा जा सकता है कि विश्व भारती के पाठ्यक्रम अनुभव केंद्रित पाठ्यक्रम है और इसका श्रेय रवीन्द्र नाथ टैगोर को जाता है।
टैगोर की शिक्षण विधि
टैगोर ने अपनी शिक्षण विधि में निम्नलिखित सिद्धांत इस प्रकार दिए हैं:-
१. शिक्षण विधि को बालक की स्वाभाविक, रूचियों, और आवेगो पर आधारित होना चाहिए। शिक्षण विधि में वाद विवाद और प्रश्नोत्तर का प्रयोग करना चाहिए।
२. शिक्षण विधि में नृत्य अभिनय दस्तकारी को स्थान मिलनी चाहिए।
३. शिक्षण विधि में बालक के अनुभव सौर इंद्रियों का प्रयोग करनी चाहिए।
टैगोर ने शिक्षण विधि को सर्वोत्तम विधि बताते हुए लिखा है “भ्रमण के समय शिक्षण सर्वोत्तम विधि है।”
शिक्षण-विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्रिया-सिद्धान्त है। टैगोर शरीर और मस्तिष्क की शिक्षा के लिए क्रिया को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार बालक को किसी हस्तकला में अवश्य प्रशिक्षित किया जाय। वे पेड़ पर चढ़ने, कूदने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने, फल तोड़ने, हँसने, चिल्लाने, ताली बजाने, अभिनय करने को शिक्षण की आवश्यक प्रविधि या युक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वे विभिन्न विषयों – जीव विज्ञान, विज्ञान, खगोल विद्या, भूगर्भ विद्या आदि की शिक्षा प्राकृतिक पर्यावरण में देना चाहते हैं, जिसमें बालक स्वानुभव, रुचि तथा करके सीख सकता है। इस प्रकार शिक्षण की वे मनोवैज्ञानिक विधियों का समर्थन करते थे।
टैगोर की शिक्षण विधि के प्रमुख सिद्धांत:
1. प्राकृतिक, बालक-केन्द्रित और अनुभवात्मक शिक्षण:
टैगोर का मानना था कि शिक्षण विधि बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों, रुचियों और जिज्ञासाओं पर आधारित होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि बच्चे को रट्टा मारने की बजाय उसे स्वयं अनुभव करके सीखने के अवसर दिए जाने चाहिए। बालक जब प्रकृति के संपर्क में रहता है, तो वह सहज रूप से ज्ञान अर्जित करता है।
2. वाद-विवाद और प्रश्नोत्तर विधि का उपयोग:
टैगोर की शिक्षण विधि में संवाद और बातचीत को विशेष स्थान प्राप्त है। उनका मानना था कि बच्चों को सिर्फ सुनने वाला नहीं, बल्कि प्रश्न पूछने वाला, जिज्ञासु और विचारशील बनाना चाहिए। इसलिए उन्होंने प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद और चर्चा आधारित शिक्षण को प्रोत्साहित किया।
3. सृजनात्मक कलाओं का समावेश:
टैगोर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य केवल बौद्धिक विकास नहीं, बल्कि भावनात्मक और सौंदर्यबोध का विकास भी होना चाहिए। इसलिए उन्होंने अपनी शिक्षण विधि में नृत्य, संगीत, नाट्य, चित्रकला और दस्तकारी को सम्मिलित किया।
इन कलाओं के माध्यम से बालक को आत्म-अभिव्यक्ति और रचनात्मकता का अवसर प्राप्त होता है।
4. इंद्रिय और अनुभव आधारित शिक्षण:
टैगोर ने कहा कि बालक को स्वयं करके सीखने का अवसर मिलना चाहिए। उनकी शिक्षण विधि में इंद्रियों (जैसे – देखना, सुनना, छूना, स्वाद लेना, गंध सूंघना) के प्रयोग से सीखने की व्यवस्था होती थी।
उदाहरण के लिए – विज्ञान, भूगोल, जीव विज्ञान जैसे विषयों को कक्षा के बजाय प्राकृतिक परिवेश में पढ़ाना चाहिए।
5. भ्रमण आधारित शिक्षण – टैगोर की दृष्टि में सर्वोत्तम विधि:
टैगोर ने लिखा,
“भ्रमण के समय शिक्षण सर्वोत्तम विधि है।”
उनका मानना था कि विद्यालय की दीवारों से बाहर निकलकर प्रकृति, समाज और परिवेश से जुड़कर बालक अधिक गहराई से सीखता है।
6. क्रिया-सिद्धान्त (Learning by Doing):
टैगोर की शिक्षण विधि में क्रिया को अत्यंत महत्व दिया गया। उन्होंने शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की सक्रियताओं को शिक्षा का आवश्यक भाग माना।
वे कहते थे कि बच्चे को सिर्फ बैठाकर नहीं पढ़ाना चाहिए, बल्कि उसे दौड़ने, खेलने, पेड़ पर चढ़ने, हस्तकला में हाथ आज़माने, गायन, ताली बजाने और अभिनय करने जैसे क्रियात्मक कार्यों के माध्यम से सिखाना चाहिए।
7. मनोवैज्ञानिक विधियों का समर्थन:
टैगोर की शिक्षण विधि बाल मनोविज्ञान पर आधारित थी। वे यह मानते थे कि हर बच्चा अलग होता है, और उसकी सीखने की गति, तरीका और अभिव्यक्ति भी भिन्न होती है। इसलिए शिक्षा को लचीली, संवेदनशील और बालक के अनुकूल बनाना आवश्यक है।
टैगोर के अनुसार शिक्षक का स्थान:
रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा में शिक्षक को एक मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत मानते थे। उनका मानना था कि मनुष्य को केवल मनुष्य ही पढ़ा सकता है, यानी शिक्षक की भूमिका केवल ज्ञान प्रदान करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे एक प्रेरक और सहयोगी की तरह कार्य करना चाहिए।
टैगोर के अनुसार, शिक्षक का स्थान और भूमिका निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट होती है:
- बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार
शिक्षक को बालक की पवित्रता और मौलिकता पर विश्वास रखना चाहिए। उसे छात्रों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए, जिससे वे निडर होकर सीख सकें और आत्मविश्वास विकसित कर सकें। टैगोर के अनुसार, शिक्षा दंड पर नहीं, बल्कि प्रेम और प्रेरणा पर आधारित होनी चाहिए। - क्रियाशीलता और अनुभव आधारित शिक्षा
टैगोर पुस्तकीय ज्ञान को कम महत्व देते थे। उनका मानना था कि शिक्षक को ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जहाँ बच्चे स्वयं अनुभव और प्रयोगों के माध्यम से सीखें। शिक्षक को बच्चों को केवल सिद्धांत नहीं सिखाने चाहिए, बल्कि उन्हें अपने आसपास के वातावरण से सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। - रचनात्मकता को प्रोत्साहन
शिक्षक का कार्य केवल विषयों को पढ़ाना नहीं है, बल्कि बालक की रचनात्मकता (Creativity) को प्रोत्साहित करना भी है। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों को गीत, संगीत, नाटक, चित्रकला और साहित्य जैसे रचनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करें। इससे छात्रों की मौलिक सोच विकसित होती है और वे शिक्षा को केवल एक औपचारिक प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि एक आनंदमयी अनुभव के रूप में ग्रहण करते हैं।
टैगोर शिक्षक को एक मार्गदर्शक, मित्र और प्रेरणास्रोत मानते थे। वे चाहते थे कि शिक्षक बच्चों को स्वतंत्र रूप से सोचने और सीखने के लिए प्रेरित करें, न कि उन्हें सिर्फ रटने और परीक्षाओं के लिए तैयार करें। उनका मानना था कि एक आदर्श शिक्षक वही होता है, जो छात्रों को उनकी रुचि, अनुभव और रचनात्मकता के आधार पर शिक्षित करे।
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शानदार