सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (FACTORS INFLUENCING SOCIAL DEVELOPMENT) Samajik Vikas Ko Prabhavit Karne Wale Karak।। शैशवास्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था में सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
शिक्षा मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, किसी भी बालक के सामाजिक विकास को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। ये कारक उसके व्यक्तित्व, आचरण, सामाजिक व्यवहार और जीवन दृष्टिकोण को दिशा देते हैं। प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारक सामाजिक विकास में निर्णायक भूमिका निभाते हैं:-
1. अनुवांशिकता (Heredity)
मनोवैज्ञानिकों के अनेक शोधों और अध्ययनों के आधार पर यह स्वीकार किया गया है कि बालक के सामाजिक विकास पर अनुवांशिकता का भी थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य पड़ता है। बालक के अंदर कुछ सामाजिक प्रवृत्तियाँ, गुण एवं मूल्यों की अभिव्यक्ति अनुवांशिक रूप से उसके पूर्वजों से प्राप्त होती है। भारत के सामाजिक इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ पूर्वजों की उच्च सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण जीवनशैली और आचरण ने आने वाली पीढ़ियों को भी उन मूल्यों से युक्त किया। जैसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिनके परिवारों में उच्च सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों की परंपरा थी, उन्होंने भी अपने जीवन में उन मूल्यों को आत्मसात कर सामाजिक चेतना, दायित्व और सेवा का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। अतः यह स्पष्ट होता है कि अनुवांशिकता सामाजिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण, यद्यपि सीमित, आधार बन सकती है।
2. परिवार (Family)
बालक के सामाजिक विकास में परिवार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। परिवार ही वह प्रथम सामाजिक इकाई है जहाँ बालक शिष्टाचार, नैतिकता, सहयोग, अनुशासन और सामाजिक मूल्यों का प्रारंभिक पाठ पढ़ता है। परिवार के सदस्यों के बीच दुलार, स्नेह, सहयोग और सुरक्षा की भावना बालक में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का संचार करती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जिन माता-पिता अपने बच्चों के प्रति स्नेहशील, समझदार और संवेदनशील होते हैं, उनके बच्चे सामाजिक गुणों को अधिक तेजी से विकसित करते हैं। इसके विपरीत, जो माता-पिता बच्चों पर निरंतर डांट-फटकार, मारपीट या गाली-गलौज का व्यवहार करते हैं, उनके बच्चे असुरक्षा, विद्वेष और आत्महीनता के शिकार हो जाते हैं, जिससे उनका समाजीकरण प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त, परिवार का आकार, सदस्यों की संख्या, पारिवारिक वातावरण और भौतिक सुविधाएँ भी बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार, एक स्वस्थ, स्नेहिल और सहयोगी पारिवारिक वातावरण बालक को एक उत्तरदायी, सहनशील और समाजोपयोगी नागरिक बनने की दिशा में प्रेरित करता है।
3. साथियों का समूह (Peer Group)
बालकों के सामाजिक विकास में उनके साथियों के समूह का विशेष स्थान होता है। यह समूह प्रायः समान आयु के बच्चों से बना होता है, जिससे उनमें आपसी समझ, सामंजस्य और सहयोग की भावना विकसित होती है। साथियों की टोली बालकों को लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाने, सामाजिक नियमों का पालन करने और समूह में मिल-जुलकर कार्य करना सिखाती है। यह समूह उन्हें स्वार्थ, समाज-विरोधी प्रवृत्तियों और असामाजिक व्यवहारों से दूर रहना सिखाता है तथा प्रतिस्पर्धा की भावना को प्रोत्साहित करता है, जिससे वे अपनी योग्यता और क्षमताओं को निखार पाते हैं। साथियों के बीच समय बिताने से बालकों को भिन्न-भिन्न पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने का अवसर मिलता है, जिससे उनमें सामाजिक मूल्यों के प्रति समझ और स्वीकार्यता उत्पन्न होती है। साथ ही, ये समूह बालकों को सामाजिक व्यवहारों का अभ्यास करने, भावनात्मक समर्थन पाने तथा सामाजिक मनोवृत्तियों के निर्माण में सहायता करते हैं। इस प्रकार साथियों का समूह बालकों के सामाजिक जीवन में आत्मनिर्भरता, आत्म-सम्मान और सामाजिक सामंजस्य की भावना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
4. विद्यालय (School)
विद्यालय केवल बालकों को औपचारिक शिक्षा देने का माध्यम नहीं होता, बल्कि यह उनके समाजीकरण की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग भी है। विद्यालय में बच्चे न केवल पाठ्यक्रम के ज्ञान से अवगत होते हैं, बल्कि वे सामाजिक मूल्यों, सामाजिक संज्ञान (Social Cognition), और सामाजिक मानकों (Social Norms) को भी सीखते हैं। विद्यालय का वातावरण, शिक्षक-छात्र संबंध, सहपाठियों के साथ अंतःक्रिया तथा विभिन्न सह-पाठयक्रम गतिविधियाँ बालकों में अनुशासन, सहयोग, उत्तरदायित्व, और समानता जैसे सामाजिक गुणों को विकसित करती हैं। विद्यालय में बालक समूह में रहना, समूह के नियमों का पालन करना, विभिन्न मतों का सम्मान करना और विविध सामाजिक परिस्थितियों में उचित व्यवहार करना सीखते हैं। इसके अतिरिक्त, विद्यालय में मनाए जाने वाले त्योहार, कार्यक्रम, प्रतियोगिताएँ आदि उन्हें विविध सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। इस प्रकार विद्यालय, बालकों के सामाजिक व्यवहार को दिशा देने वाला, उन्हें समाज के उत्तरदायी नागरिक बनाने वाला एक प्रभावशाली मंच होता है।
5. अध्यापक (Teacher)
अध्यापक बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में एक सशक्त और प्रभावशाली भूमिका निभाता है। अध्यापक का व्यक्तित्व, उसके व्यवहार, और विद्यार्थियों के साथ होने वाली अंतःक्रियाएँ सीधे तौर पर बालकों के सामाजिक विकास को प्रभावित करती हैं। यदि अध्यापक सामाजिक शील-गुणों से युक्त होता है और अपने विद्यार्थियों के प्रति स्नेहपूर्ण, सहायक और प्रोत्साहित करने वाला व्यवहार करता है, तो वह बालकों में आत्मविश्वास, सहयोग, अनुशासन और सामाजिक समायोजन जैसे गुणों को विकसित करता है। बच्चे अपने अध्यापक को एक आदर्श के रूप में देखते हैं और उसके व्यवहार का अनुकरण करते हैं। इसके विपरीत, यदि अध्यापक स्वयं कुसमायोजित होता है, क्रोधी या कठोर होता है, तो बालकों में असामाजिक व्यवहारों की प्रवृत्ति पनप सकती है और समाजीकरण की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। हिल और एटोन (1977) के अनुसार, वे अध्यापक जो विद्यार्थियों के साथ पुरस्कारी अंतःक्रिया (Rewarding Interaction) करते हैं, उनके व्यवहारों का अनुकरण बालक अधिक करते हैं, जिससे उनका सामाजिक विकास सकारात्मक दिशा में होता है। इस प्रकार, अध्यापक का व्यक्तित्व और उसकी शिक्षण शैली बालकों के सामाजिक गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
6. संवेगात्मक विकास (Emotional Development)
बालक का संवेगात्मक विकास उसके सामाजिक विकास पर गहरा प्रभाव डालता है। यदि बालक के भीतर स्नेह, करुणा, विनोद और आत्मीयता जैसे सकारात्मक संवेग प्रबल होते हैं, तो वह समाज में सभी का प्रिय बन जाता है और उसके सामाजिक संबंध सहजता से विकसित होते हैं। वहीं, यदि बालक ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष और घृणा जैसे नकारात्मक संवेगों से ग्रसित रहता है, तो अन्य लोग उसकी उपेक्षा करने लगते हैं, जिससे उसका सामाजिक विकास बाधित हो सकता है। इस प्रकार उसके सामाजिक संबंधों में दूरी और असंतुलन उत्पन्न होता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक क्रो और क्रो का यह कथन उल्लेखनीय है कि “संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं।” अर्थात्, यदि बालक के संवेग संतुलित, नियंत्रित और सकारात्मक होते हैं, तो सामाजिक वातावरण में उसका समायोजन सहज और प्रभावी होता है। अतः यह स्पष्ट है कि बालक के भावनात्मक स्वास्थ्य और संतुलन का सीधा संबंध उसके सामाजिक विकास से जुड़ा हुआ है।
7. शारीरिक तथा मानसिक विकास (Physical and Mental Development)
बालकों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य उनके सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिन बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास संतुलित और सुदृढ़ होता है, वे सामाजिक रूप से अधिक सक्रिय, आत्मविश्वासी और समायोजनशील होते हैं। वे आसानी से अपने साथियों के बीच स्वीकार किए जाते हैं और सामाजिक गतिविधियों में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। इसके विपरीत, जो बालक शारीरिक रूप से अत्यधिक मोटे, बहुत पतले, नाटे या किसी अन्य विशिष्टता से ग्रसित होते हैं, वे अपने साथियों के बीच उपेक्षा का शिकार हो सकते हैं। समाज द्वारा उपहास या उपेक्षा मिलने से उनमें हीन भावना विकसित हो जाती है, जो उनके सामाजिक समायोजन में बाधा उत्पन्न करती है। इसी प्रकार, जिन बालकों का मानसिक स्वास्थ्य दुर्बल होता है, वे चिंता, द्वंद्व और निराशा में घिरे रहते हैं, जिससे वे समाज के साथ सही ढंग से तालमेल नहीं बिठा पाते। ऐसे बालक अक्सर समस्यात्मक बालक (Problem Child) के रूप में उभरते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि सामाजिक विकास के लिए बालकों का शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होना अत्यंत आवश्यक है।
8. पास-पड़ोस (Neighbourhood)
बालकों के सामाजिक विकास में पास-पड़ोस एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब बच्चा अपने आस-पास रहने वाले लोगों के संपर्क में आता है, तो वह विभिन्न सामाजिक व्यवहारों, परंपराओं और जीवन मूल्यों से परिचित होता है। पास-पड़ोस के बच्चों और बड़ों के साथ संवाद और सहभागिता के माध्यम से बालक सामाजिक समस्याओं पर चर्चा करता है, नए विचारों को समझता है और कई बार अचेतन रूप से इन आदर्शों को अपने व्यवहार और व्यक्तित्व में समाहित कर लेता है। इस प्रकार उसका समाजीकरण तीव्र गति से होता है और उसमें सहयोग, परोपकार, सहिष्णुता, और सामाजिक उत्तरदायित्व जैसे गुणों का विकास होता है। अच्छे पड़ोस का प्रभाव बालक के सामाजिक जीवन की नींव को मजबूत बनाता है, जो आगे चलकर उसे एक सशक्त और जिम्मेदार नागरिक बनने में सहायता करता है।
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9. आर्थिक स्थिति (Economic Condition)
बालक के सामाजिक विकास पर उसकी पारिवारिक आर्थिक स्थिति का गहरा प्रभाव पड़ता है। संपन्न परिवारों के बच्चे आमतौर पर बेहतर आवास, पोषण, शिक्षा और सामाजिक संसाधनों का लाभ उठाते हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व निखरता है और सामाजिक वातावरण में उनकी भागीदारी सहज होती है। वे अच्छे विद्यालयों में अध्ययन करते हैं, जहाँ उन्हें व्यापक सामाजिक अनुभव और संवाद के अवसर मिलते हैं। इसके विपरीत, आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को अनेक सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, जिससे उनका आत्मविश्वास और सामाजिक कौशल प्रभावित हो सकता है। इस आर्थिक असमानता के कारण उनके समाजीकरण की प्रक्रिया धीमी हो जाती है और वे कई बार हीन भावना, अलगाव अथवा उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं। इसलिए सामाजिक विकास को समझने और समर्थन देने के लिए आर्थिक कारकों की अनदेखी नहीं की जा सकती।
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10. धार्मिक संस्थाएँ और क्लब आदि (Religious Institutions and Clubs)
धार्मिक संस्थाएँ और क्लब बालकों के सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा जैसी धार्मिक संस्थाएँ समाज के सदस्यों को एकत्रित करती हैं, जहाँ वे विचार-विनिमय, सामाजिक संपर्क और पारस्परिक संबंधों को बढ़ावा देते हैं। इन स्थानों पर बालकों को न केवल धार्मिक शिक्षा मिलती है, बल्कि उन्हें आदर्श, परंपराएँ और मान्यताएँ भी सिखाई जाती हैं, जो उनके सामाजिक व्यवहार को सकारात्मक दिशा में प्रभावित करती हैं। यहां से प्राप्त नैतिक मूल्य और समुदाय के साथ जुड़ाव बालकों के लिए सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और सहयोग की भावना को उत्पन्न करते हैं। साथ ही, धार्मिक संस्थाएँ और क्लब बालकों को समाज में अपनी जिम्मेदारी समझने और सही सामाजिक आदर्शों को अपनाने का अवसर प्रदान करती हैं, जिससे उनके समाजीकरण की प्रक्रिया सुदृढ़ होती है।
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11. सूचना एवं मनोरंजन के साधन (Means of Information and Entertainment)
समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन जैसे सूचना और मनोरंजन के साधन बालकों के सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये साधन बालकों को समाज की संरचना, सामाजिक परिवर्तन, और सामाजिक मूल्यों से परिचित कराते हैं। इसके अलावा, यह उन्हें सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, बुराइयों और कुसंस्कारों के प्रति घृणा उत्पन्न करने में मदद करते हैं, और बालकों को इनका उन्मूलन करने की दिशा में प्रेरित करते हैं। जैसे-जैसे ये साधन बालकों को समाज की समस्याओं और आवश्यकताओं के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं, वे समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में सोचने लगते हैं। हालांकि, यह भी जरूरी है कि इन साधनों के द्वारा बालकों पर कोई अवांछनीय प्रभाव न पड़े। बच्चों को सही जानकारी और स्वस्थ मनोरंजन देने के लिए इन साधनों का उपयोग जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए।
12. मीडिया और संचार साधन (Media and Communication Tools)
वर्तमान युग में टेलीविज़न, इंटरनेट, मोबाइल और सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यमों ने बालकों के सामाजिक दृष्टिकोण को अत्यधिक प्रभावित किया है। ये माध्यम केवल सूचना और मनोरंजन के स्रोत नहीं रह गए हैं, बल्कि वे सामाजिक मूल्यों, आदर्शों और व्यवहारों को गढ़ने या बिगाड़ने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। सकारात्मक उपयोग की स्थिति में ये माध्यम बालकों को वैश्विक दृष्टिकोण, सहिष्णुता, विविधता की स्वीकृति और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक बनाते हैं। वहीं, नकारात्मक सामग्री या असंवेदनशील प्रसारणों के संपर्क में आने पर बच्चों के व्यवहार में विकृति आ सकती है। अतः आवश्यक है कि मीडिया के प्रभाव को समझते हुए बच्चों को उपयुक्त दिशा में मार्गदर्शन दिया जाए, ताकि संचार साधन उनके सामाजिक विकास में सहायक बनें, बाधक नहीं।
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13. सांस्कृतिक परिवेश (Cultural Environment)
बालक जिस सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में पलता-बढ़ता है, उसी परिवेश की परंपराएँ, मान्यताएँ, रीति-रिवाज और सामाजिक आदर्श उसके सामाजिक व्यवहार तथा सोच को गहराई से प्रभावित करते हैं। यह परिवेश बालक को यह सिखाता है कि समाज में कैसे व्यवहार किया जाए, किस बात को उचित और किसे अनुचित माना जाता है, और कौन-से मूल्य जीवन में अपनाए जाने चाहिए। जैसे-जैसे बालक इन सांस्कृतिक तत्वों के संपर्क में आता है, वह उनके अनुरूप अपनी सामाजिक पहचान, दृष्टिकोण और संबंधों की शैली का निर्माण करता है। इस प्रकार सांस्कृतिक परिवेश बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया का मूल आधार बन जाता है और उसके सामाजिक विकास की दिशा निर्धारित करता है।
14. सांस्कृतिक परिवेश (Cultural Environment)
शैक्षिक स्तर किसी बालक के सामाजिक विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो बालक उच्च शिक्षित वातावरण में पलते-बढ़ते हैं, वे न केवल बेहतर सामाजिक मूल्यों को आत्मसात करते हैं, बल्कि व्यवहारिक रूप से भी अधिक परिपक्व, सजग और उत्तरदायी बनते हैं। शिक्षा उन्हें सहिष्णुता, सहयोग, समानता, और दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की क्षमता प्रदान करती है। शिक्षित बालक तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम होते हैं तथा सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाते हैं। इसके विपरीत, शिक्षा की कमी सामाजिक कुशलताओं के विकास में बाधा बन सकती है और बालक में हीनता, असहिष्णुता या असामाजिक व्यवहारों को जन्म दे सकती है। इस प्रकार, शैक्षिक स्तर सामाजिक विकास की दिशा और गुणवत्ता को निर्धारित करने में एक निर्णायक कारक है।
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